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अब कोई आवाज़ नहीं देता
अब कोई आवाज़ नहीं देता
पड़ौसी को
याद नहीं आता
कोई दूजा पड़ौसी
बेवक्त कोई नहीं आ धमकता
घर
अब बेकाम से
कोई नहीं बतियाता मोहल्ले में
न भागल भचिकता है
न खटखटाता है दरवाज़े
साहस नहीं करता
अब कोई
अकाम मुस्कराने का
न मांगता है साधिकार
अब कोई
सरोता,अमानदस्ता,
छाजला, घट्टी जैसी
ज़रूरत की चीज़ें
सबके पास रख्खे हैं
सब सामान
बड़ी परात,बड़ा तपेला
बड़ा कड़ायला सरीखे
शब्द अब गायब है मोहल्ले से
न आवाजें बची है अब
इस नयी शक्ल की संस्कृति में
गोया
ताऊ,बुआ,मौसी सहित
लुप्त हो गयी है कुछ संज्ञाएँ
मीठे नीम वाली अणची बाई,
मेहंदी वाले हुक्मीचंद
घोटू उस्ताद किले वाले,
मोहन पनवाड़ी
भेरू लंगड़ा,
नई आबादी की राखियों वाली भाभा
हलवाई परबू कुम्हार
सी संज्ञाएँ लुप्त हो गए
कितने कम निकल पाते हैं
हम अपने बिलों से
दिन बीत जाते
उपरला पाड़ा,हरिजन बस्ती,खटिक मोहल्ला
देखे हुए समय गुज़र जाता
चन्दन चौक, छीपा बाज़ार
निहारे हुए
अफसोस
बातों में ज़िक्र नहीं आता अब
करचू, जावण, हिंदरा
जैसे शब्द
कितने कम सुने जाते हैं
खुरचणा, चिम्पियाँ, और भोगली
बिम्बों में गायब है
छान पर कवेलू
छूमरी रख घड़े लाती औरतें
नहीं आती नज़र
इस तरह बिना कहे
कुछ और भी हो रहा है
शनै: शनै: गायब
हमारे आसपास से
(2)
स्मृतियाँ
स्मृतियों में
जहां हंसता है पहाड़
वहीं रुआंसी सूरत वाली
नदी
कलकल बहती है अनवरत
स्मृतियों में
बातों के बीच
उदासियों की फाल पर
बगीचे की कनेर
तुरपाई करती हुई
सफाई से
चली आती है
मुझ तक
स्मृतियों में
पीछे मुड़ते ही
दिन के घोखड़े से झांकती है
मुसाफिर की तरह
एक मुलाक़ात
पहचान की शक्ल सी
उतरती है गहरे
जेहन में
एक आभास यहाँ भी कि
कहीं उबासियाँ खड़ी हैं
ज्ञापन लिए हाथों में
मानहानि और अतिक्रमण
के दावे पेश करती हुई
तमतमाते ललाट लिए
दिख जाती हैं
स्मृतियों में
कहीं खालीपन में
खुद को नोचती हैं
कुछ खुशनुमा इमारतें
परेशान होकर
कहीं झील
सुबकती हुई मिल जाती
अकेले में कंपकंपाती हैं
स्मृतियों में
एकाध बात अच्छी है स्मृतियों की
जहां
इतवारिया हाट से लौटती
आदिवासी बालाओं सी
नंगे पाँव
घर तक आ जाती हैंसकुशल कुछ खबरें
स्मृतियों में
*माणिक *
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