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उनके पास सब्र रखने के सिवाय
अब कोई रास्ता भी तो नहीं रहा
अफसोस
वे मेरे आने का सिर्फ इंतज़ार ही कर सकते हैं
वे दोनों के दोनों
खुद से ही पूछते होंगे बार बार मेरे आने की खबर
और फिर देर तक चुप हो जाते होंगे
अनगिनत लोग गाँव के
ज़रूर पूछते होंगे मेरे बारे में उनसे
अरे हाँ
एक दूजे को बतलाने की परम्परा अब भी ज़िंदा है गांवों में
कमोबेश ही सही
लोग अब भी
मुस्कराते हैं आते-जाते एक दूजे से
जाने क्या क्या बहाने साझा करते होंगे
वे अपने पड़ौसी दोस्तों के साथ
मेरे नहीं जा पाने पर
और मैं लफंगा
यहाँ
जाने किन अनजाने और कमज़रूरी कामों में
फंसा हुआ होकर खुशनसीब होने का ढोंग कर रहा हूँ
(मुआफी,साथियों ये कविता नहीं भावों के उदगार हैं/)
(2)आयोजन
अपने ही मित्र वक्ता होंगे
टोक देंगे अधबीच
जब भी मन भर जाएगा हमारा
अतिथि भी हमारी अपनी पसंद से हैं
माला,नारियल,तिलक,तमगे
दें या न दें
चल जाएगा
सादगी की हद है भाई
बोलने का मसौदा तक बदल देंगे अतिथियों का
अपनी मर्जी से
तो भी वे बेफ़र्क सजह रहेंगे
टेंट,कनात,कुर्सियां क्या
सब की सब
पसंद से तय की है हमने
नास्ते के मीनू से लेकर
साउण्ड-फाउंड
चाय-पानी के लौटे-गिलास
बैनर-झंडे
कार्ड-लिफ़ाफ़े
फोटो-विडियोग्राफी सरीखे
सारे धन्धफ़न्द
हमारी देखरेख में पूरे हुए हैं
आधी रोटी पर दाल लेते
श्रोता-दर्शक
छांट-छांट कर आमंत्रित किए हैं
हमने इस बार
इतनी आज़ादी
इतना उल्लाबुल्ला चबुतरा
किसी आयोजन का
इतना खुला आँगनभी हो सकता है
जाना है इन दिनों में पहली बार
*माणिक *
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