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04 अप्रैल, 2010

पड़ौस के बहाने-कविता


कविता पड़ौस के बहाने
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क्यूं टोंकता नहीं,रोकता नहीं,
कोई भी मेरा अपना,
आजकल,तो बस चल रहा हूं ,
अमूक दिशा में यूंहीं बिना उद्देश्य,
मेरी तरफ़ अब,
ध्यान नहीं रहता किसी का भी,
अखबारी लिखावट में,
 छपी गलतियों सा हो गया हूं,
बदल रहा है पड़ौस और मेरा मन,
साथ-साथ,
करता नहीं तसल्ली से बात, 
घड़ी दो घड़ी बैठकर किसी से,
मुझसे कोई,
आता नज़र भागता दौड़ता हर कोई,
फ़ुरसत कम ही मिलती है,
दुनियादारी का फ़ैलावड़ा जो कर लिया है,
जानता नही उसे मैं,
जो रहता है एक मकान छोड़ कर,
दीवार के उस पार दिखता है पड़ौसी मेरा ,
सवेरे के कुल्ले के टाईम बस,
या देर रात हड़कंपी होर्न बजाकर,
खुलवाता है फाटक अपने ही घर की,
पड़ौसी जानता होगा मुझे भी,
मिले थे कभी एक साथ खाने में कहीं,
फ़रक बढ़ गया है कितना,
नज़दीक के आदमी से दूर जाकर मिलना पड़ता है,
वो गांव का पड़ौस याद है आज़ भी,
पूछता था पता अगर कोई,
घर तक छोड़ आते हालचाल पूछते-पाछते,
शहर का रंग कुछ हल्का है अब ,
तूनक पड़ता हर कोई,बस पता किसी का पूछ लें,
शहर में आती ये हवा किधर से,
बेतरतीब बदलाव की,
खिड़कियां भी तो खुली रखी है हमने,
मतलब की दोस्ती और टाईमपास बातें,
रची बसी है यहां आज़कल,
नाम है,गाड़ी है,रुतबा है,मौहल्ले में आपका,
बस पक्का मान लीजिये,
आयेगा निमन्त्रण जिमणे का,
नांगल,मुण्डन हो य बर्थ डे का केक काटा जाये,
माल कम है और नाम भी थोड़ा है तो,
झांकेगा भी नहीं कोई मुण्डेर से इधर,
पत्तल दोने उड़े फिरेंगे,बिछात बीछी रहेगी,
घर आपका छोड़कर अछूत की तरह ,
मगर लोग बुलायेंगे औरों को,
काम के लोगों का नाम पूछते हैं ये लोग,
वार-त्योंहार मिठाई दे जाते हैं,
कटोरी में ढ़ंककर प्लेट से,
मौहल्ला मेरा पूरी अदाकारी पर है,
सच कहूं तो मैं भी कम नहीं पड़ता,
सीख रहा हूं इसी बीच,
नई चिजें दिखा-दिखाकर,खाता,पहनता और ईठलाता,
बिन मांगे विज़टिंग कार्ड देता हूं,
मांगने पर पोथी तक बांच देता हूं पुरखों की,
ऐसा बदला कि अब बदल न पाऊं फ़िर से,
फ़ुरसत कम ही मिलती है,
झांकने को अपने भीतर,
वक्त कहां रहा इतना अब,
देखने को बदलाव के मीटर की रीडिंग,
 
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