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06 अप्रैल, 2013

06-04-2013

राजस्थान में साढ़े ग्यारह बार जौहर हुए। राज्य का दूसरा जौहर चित्तौड़ में 1303 में हुआ जो पहले पहल पद्मिनी ने किया मगर उसके बाद भी चित्तौड़ में दो जौहर  और हुए जिनमें सांगा की राणी कर्मावती ने 1536 में और बाद में 1567 में फतेहसिंह सिसोदिया की राणी  फुलकंवर ने किया।अफ़सोस तब होता है जब हम ज्ञान की कमी के कारण चीजों में घालमेल कर देते हैं।अफसोस तब भी होता है जब हम पद्मिनी की चर्चा करते हुए मलिक मोहम्मद जायसी की रचना 'पद्मावत' को ही इतिहास समझ बैठते हैं।हम कितने भोले हैं।साहित्य और इतिहास में फरक नहीं जानते हैं।भारतीय होने के नाते हमारा 'भावों में बहना' एक तरह से परम कर्तव्य अनुभव होने लगा है।स्वाभिमान की रक्षा की खातिर मर मिटने वाली उन वीरांगनाओं को सलाम जिनकी कोई  एक जाति नहीं थी।राजपूती रानियों के साथ ही तमाम सेवक जातियाँ भी उनमें शामिल समझी जानी चाहिए।
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बकौल राजेश चौधरी किसी शहर में नौकरी और नौकरी के बाद शाम का वक़्त बिताने और ढंग से बात-विचार करने वाले मित्र मिलना भी बड़ा दुश्वार है।हमविचार का मिल जाना किसी खजाने से कम ना समझिएगा।जब हम ब्यावर में थे कोलेज में एक भी मेल स्टाफ नहीं था। अच्छे मित्रों के फाके थे वहाँ।एकाध को छोड़कर जो कोमर्स का आदमी था मतलब मेरे जैसे साहित्यिक कीड़े के लिए तो लगभग बेकाम का।बड़ी मुद्दत के बाद शामें गुजारने के लिए मुझे दो मित्र मिले।

इस लिहाज से मुझे चित्तौड़ बड़ा रास आया।यहाँ मित्र-मंडली जम गयी।पारिवारिक गोष्ठियां भी होती है।आदमी ढंग के मिल गए।दो बात कहने-सुनने की गुंजाईश है।शहर में वार-तेवार चाय पीने के अड्डे तो हैं।चाय वो भी विदाउट शुगर।

बातें करने के मेरे इस चस्के के चक्कर में एक बारगी तो ऐसा भी लगा कि मैंने ऐसे दोस्त को पैसे उधार पे दिए जिसके वापस नहीं आने का भी मुझे पक्का विश्वास था।मगर उस दोस्त से मैं गप्प लड़ा सकता था।उसके साथ वक़्त निकाल कर इधर-उधर की बातें कर सकता था।

वरना यहाँ साथिनों में तो सासू पुराण , साड़ियों, खानपीन और जेवर पर रोज़मर्रा की राष्ट्रीय सेमिनारों से ही फुरसत नहीं मिलती है।
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अजीब लोग हैं यहाँ बरसों के नोट्स के भरोसे क्लासें जारी है।अपने को क्या डीए  हर छ: माही बढ़ ही जाता है।जुलाई का इन्क्रीमेंट पक्का है ही।कुछ कोपियाँ चेक करने के मार्फ़त मिल जाता है।विमर्श के नाम पर उनसे कुछ ना पूछिएगा।रही बात संगत की तो ज़रा संभल के भाई।आपके बिगड़ने के पूरे चांस हैं।यहाँ लोगों के लिए नौकरी के अलावा साहित्येत्तर गतिविधियों में समय-विचार-धन देना बेवकूफी की श्रेणी में आता है।हमारे बड़ावे कहते रहे कि एक ज़माना था जब शहर में बुद्धिजीवी के नाम पर तीन कौम थी।प्रोफ़ेसर, वकील और चिकित्सक। लगता है इस नए ज़माने के खांचे में ये तीनों कौम बड़ी व्यस्त है। शहर में साहित्येत्तर आयोजनों में इनके शामिल होने,वक्ताओं की सूचि में इनके नाम गायब होने के इस दौर में खासी चिंता की जानी चाहिए । मुझे तो एक भी बड़ा वैचारिक मंच ऐसा नहीं दिखता है जहां ये साथी अगमचारी  हों। समाज इनकी तरह ज़रूर ताकता है। मगर ये साथी कहीं दूजी तरफ ताक रहे हैं।

खैर टिप्पणियाँ करना बहुते आसान है बचुआ ज़रा तप करो तो लगेगा कितनी गरमी है बाहर के माहौल में।कितने अड़ंगेबाज लोग हैं शहर में।शहर में ऐसे भी मिलेंगे जो ताक में बैठे घूर रहे हैं आपको।आमंत्रण पत्र और बैनर में दस गलतियाँ ढूंढ लेंगे।बिना बतलाये दस सुझाव हांक देंगे।
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