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05 अप्रैल, 2013

05-04-2013

आज शाम गुरु डॉ एम् बालमुरलीकृष्णा को रिकोर्ड किये हुए म्युज़िक के साथ सुनते हुए बीत गयी।अद्भुत।ये 'अद्भुत' मैं तब कह रहा हूँ जब मुझे शास्त्रीय संगीत की समझ बिलकुल भी नहीं है।मतलब एक बात साफ़ है कि शास्त्रीय संगीत भले भारी-भरकम चीज है मगर सुनने के सलीके के लिहाज से ये ज्यादा रियाज नहीं माँगता है।बस मन होना चाहिए।
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एक दोपहर गंभीर पाठक किस्म की हमारी दीदी रेणु जी से मुलाक़ात।वे कहती हैं कि मेरी दो आदतें हैं एक पढ़ना यानि साहित्य और दूजी  कला यानि .......कढ़ाई, रेखाचित्र खींचना, कपड़े सिलना, खिलौने बनाना, फ़िल्में देखना, गीत सुनना, पेंटिंग करना। 

बाप रे इतनी सारी रुचियाँ और एक जान। मगर वे थकती नहीं हैं। तालमेल के साथ सबकुछ सही समय पर। सारे काम एक योजना के मुताबिक़ करने की आदी हमारी रेणुजी। पहले पढ़ लेती है फिर दिनों तक सोचती हैं आखिर में ठीक से मथने के बाद लिखती हैं। संतुलित टिप्पणियाँ करते हुए अपनी बात आखिर तक रखने का उनका मुलायम अंदाज मुझे बेहद पसंद आता है। विज्ञान की छात्रा होते हुए भी उन्हें हमेशा उनकी भाषा अच्छी लगी। स्कूली जीवन से ही तारीफें मिलती रहीं।इस बात के लिए उन्हें उनके अल्पकालीन प्रवास में दिल्ली में भी बहुत सी बधाइयां मिली।मगर वे तब खुश हुई जब उनके पीएच डी गुरु उदयपुरवासी नवल किशोर जी ने उनके शोध पर यही बात दोहराई।

वे कहती हैं जब भी वे शोध के दौरान उदयपुर अपने गुरु के घर जाती थीं नवल जी उन्हें हमेशा दरवाजे तक छोड़ने आते थे।मगर एक सहज अंदाज़ की जीवन शैली जीने की आदी रेणुजी उस वक़्त बहुत असहज अनुभव करती थीं जब उनके गुरु स्वयं सी-ऑफ़ करने दूर तक आते।उन्होंने बहुत कुछ पढ़ रखा है ये बात तो पक्की है मगर वे लगातार पढ़ते हुए ये बात दोहराती रहती हैं कि उन्होंने बहुत कुछ नहीं पढ़ा है।वे आगे कहती हैं कि अफसोस वे तभी कोई आलेख लिखने बैठती है जब किसी का कोई विशेष आग्रह हो ही।स्वयं प्रेरित हो कुछ लिखा नहीं।या तो संपादकों ने लिखवाया या फिर आकाशवाणी ने।
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बेटी के एल के जी में प्रवेश और सालाना फीस(एडमिशन से कुछ कम रेट वाला री-एडमिशन ,पेन्सिल-रबड़  वाली स्टेशनरी, साढ़े दस महीने का टेम्पो भाड़ा, पहचान वाला होने की रिबेट के साथ ग्यारह माह की ट्यूशन फी) जमा कराने की रसम पूरी।एक बड़े काम से फारिग होने की तसल्ली है मेरे पास।अब रही बात आने वाले दिनों में बेटी के दैनिक गृहकार्य के निबटान की समस्या तो तब की तब देखी जाएगी।कुछ वक़्त तो चिंता रहित बिताने दो इस दौड़ में, मैं पहले ही हाँपते हुए चल रहा हूँ भाई।
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बीत दिनों एक स्कूल के प्रबंधक किस्म के मालिक से चौराहे पर अरसे बाद मुलाक़ात हो गयी।मुझे बातचीत के ख़त्म होने पर पता चला वे आज भी साहूकारी किस्म से ही स्कूल चलाते हैं।पूछने लगे आप ही बताओ ये स्पिक मैके में एक घंटे में भरतनाट्यम दिखाने से बच्चों को क्या नफ़ा? जबकि दाम खरचें आठ से दस हजार।

(मैंने सोचा शिक्षा में अब ऐसे ही लोग आ गए हैं जो चिजों को 'नफे' की दृष्टि से देखते हैं।क्या जीवन में सब नफे के लिहाज से ही जोड़ा-घटाया जाता है।)

मैंने कहा 

''बड़े कलाकार' स्कूल में आते हैं तो बच्चे उनसे प्रेरित होते हैं।जीवन में कुछ कर गुजरने की प्रेरणा पा सकते हैं।नृत्य सिखाने से ज्यादा शायद स्पिक मैके एक अवसर देता है जब बच्चे किसी विलक्षण व्यक्तित्व को संस्कृतिपरक किसी कला के साथ देखता, सुनता और अनुभव करता है।''

उन्होंने एक ही जवाब में बातचीत का गला घोंट दिया कहा कि 

''नृत्य वगरैह वगैरह तो हम एक डांस टीचर स्कूल में बुलाते हैं तो बच्चे सीख भी जाते हैं और  हमारा एन्युअल फंक्शन भी निबट जाता है। हमें तो यही पोसाता है।''

इस जवाब ने मुझे घर चलने का संकेत दिया।घर तक आते आते उस डांस टीचर के बरक्स देश के नामी गुरु बार बार दिमाग में आते रहे गोया बिरजू महाराज, सोनल मानसिंह, पंडित रोनू मजुमदार, रमा वैध्यनाथन, पंडित विश्वमोहन भट्ट, गिरिजा देवी जी, पंडित छन्नू लाल मिश्र, उस्ताद अकरम खान, पखावजी पंडित डालचंद शर्मा जैसे और भी बहुत से नाम जिन्हें मैंने बहुत करीब से देखा,सूना और जिनकी सेवा की।

मैं इन नामों के बाद 'वगैरह-वगैरह' लगाने की हिमाकत नहीं कर सकूंगा।

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