Loading...
22 फ़रवरी, 2015

22-02-2015

  • कल उदयपुर जाने का बड़ा मन था जहां मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में डॉ. माधव हाड़ा जी ने एक आयोजन रखा था.लीलाधर जगूड़ी जी को सुनने का एक मौक़ा था.नहीं जा सका.अफ़सोस.मेरी मति में आयोजन दो तरह के होते हैं.कुछ आयोजनों में नहीं जा पाने का अफ़सोस होता है कुछ में जाने का अफ़सोस.आज के दौर में जहां साहित्य और संस्कृति के आयोजन में श्रोता या दर्शक जुटाना वैसे ही टेड़ी खीर है ऊपर से बेस्वाद और लिजलिजे आयोजनकर्ता रहे सहे श्रोता और दर्शकों को भी भ्रमित ही करते दिखे हैं.इस दौर में आयोजनों में भागीदारी के अनुशासन और प्रतिभागिता की सभ्यता पर वैसे ही चिंतन और चिंता की लकीरें खिंची रहती है तो बताओ आयोजकों की जिम्मेदारी कितनी ज्यादा बढ़ जाती है कि वे आये हुए श्रोताओं को अपनी प्रस्तुति में बाँध सकें.कल शाम चित्तौड़ की एक कॉलोनी में जयपुर की एक नृत्य अकादमी का शो था. बहुत तारीफ़ सुनी थी.सारे तारीफ़बाज लोग ग़लत साबित हुए.कई बार हम भूल जाते हैं कि किसी की तारीफ़ करने में भी हमारी साख का सवाल निहित होता है.खैर कल जाकर उस रंगारंग आयोजन की असलियत देख आया.मैंने एक दशक तक स्पिक मैके में संगतकारों के साथ से गूंथी हुयी प्रस्तुतियाँ देखी है तो अब सिर्फ रिकोर्डड म्यूजिक पर नृत्य ने निराश ही किया.एक भी बार रोंगटे खड़े नहीं हुए.जानता हूँ बड़े नाम वाले भी कभी-कभी रोमांचित नहीं कर पाते.किसी भी आयोजन का सबसे बेकार पक्ष यह भी होता है कि एक ग़लत-सलत उच्चारणबाज मंच संचालक को आयोजन थमा दो.कल भी ऐसा ही हुआ.मंच संचालन करना सब्जी-भाजी बेचना नहीं है.बस हो गया बंटाधार.एक शो जिसके जिसकी दस प्रस्तुतियों के बीच आए हर अंतराल में शो के निर्देशक का परिचय पढ़ना और शो के अधबीच तो तब हद हो गयी जब एक पावर पॉइंट प्रजेंटेशन से संस्था का लंबा और उबाऊ परिचय दोहराया गया.एक बेकार प्रजेंटेशन.हम लोग इतने ग़लतफहम लोग हैं कि सिर्फ बेक ग्राउंड में सितार बजा देने और फोटो का स्लाइड शो कर देने मात्र से इतिश्री समझ बैठते हैं.वहाँ पूरा बाज़ार आ घुसा था जैसे हमारे जीवन में आ ही घुसा है.माना कि आप मुफ्त में आयोजन परोस रहे होंगे मगर भाई शुरू और आखिर में कुछ विज्ञापन ठीक थे.एक बारगी लगा विज्ञापन के बीच हम नृत्य प्रस्तुतियां ढूंढ रहे हैं.जो कुछ थोड़ा असर था बीच-बीच की उन विज्ञापन छाप तारीफ़ों ने किरकिरा कर दिया.श्रोता और दर्शक को बेचारा समझने की भूल करते ये आयोजनकर्ता नहीं जानते हैं कि उन्हें बाज़ार का ठीक-ठीक अंदाज़ा है अब.कोई उन्हें बेवकूफ कैसे बना सकता है.
  • मेरा मानना है कि 'मीरा' पर चर्चा करना ही असल मायने में 'प्रगतिशीलता' का परिचायक है.कबीर और मीरा जैसों से ही तो हमारी प्रगतिशीलता शुरू होती है.'मीरा' को थोड़े में बाँध देना और आँखें ठीक से नहीं खोलना और चले जाना.भला कैसी प्रगतिशीलता है.आज की युवा पीढ़ी 'मीरा' के मायने समझना चाहती है.सिर्फ भजन-भजन मतलब उनकी 'कविता' की चर्चा से क्या बात बनेगी?.उनके जीवन और कविता के निहितार्थ का ठीक से अंदाजा लगाना ही होगा.हम भला कब तक दिशा भ्रमित ही जीते रहेंगे.आओ दिशा साफ़ करें.मीरा को भक्त से आगे भी कुछ समझें.'स्त्री विमर्श' की सबसे बड़ी प्रेरणा और आयकॉन 'मीरा' ही तो है.मीरा की चर्चा हो और स्त्री विमर्श पर बात नहीं हो ऐसा भला कैसा संभव है.लोग कहते हैं 'मीरा' का व्यक्तित्व 'असहमति' का साहस दर्शाने वाला व्यक्तित्व नहीं है.वह 'विद्रोहिणी' कभी रही ही नहीं.वह सिर्फ और सिर्फ एक भक्त थी,भजन गाती थी.तमाम भजन गेय थे.भजनों से ही मीरा की व्याप्ति सभी जगह हो सकी.मामला ख़त्म.क्या लोग सही कहते हैं.आश्चर्य है.क्या फ़र्क पड़ता है 'मीरा' कब पैदा हुयी?.या तो एक साल पहले या फिर एक साल आगे.कहाँ पैदा हुयी? या तो कुड़की या फिर मेड़ता या फिर कहीं दूसरी जगह..ज्यादा मायने यह बात रखती है कि मीरा की वर्तमान दौर में क्या प्रासंगिकता है?.मीरा को सिर्फ भक्त कवयित्री सिद्ध करके चेप्टर ख़त्म करना उन्हें बहुत थोड़े में समेटना हैं.'प्रेम' की प्रखर पक्षधर मीरा का जीवन ही सामाजिक साफ़-सफाई का एक बड़ा सन्देश है.काहें लोग तिथियों में उलझे हैं.
  • उनका अघोषित आदेश है कि इस नए चलन वाले युग में हर संगोष्ठी 'राष्ट्रीय संगोष्ठी' और हर कवि सम्मलेन 'अखिल भारतीय' पढ़ा और समझा जाए.इतना स्वाभिमान तो अभी बचाकर रखा ही है कि बिना आमंत्रण कहीं जाता नहीं हूँ और इतना विवेक भी बचाए रखा है कि आए हुए आमंत्रण में से चयन करके ही प्रतिभागिता कर सकूं.यह सदी सर्टिफिकेट कबाड़ने और आवेदन करके सम्मान लेने के नाम रहेगी जो हमें सर्टिफिकेट के एक अम्बार पर ला खड़ा करेगी.
  • इस 'लाउड स्पिकरी युग' में बेचारा 'मौन' रोज़ाना बेमौत मरता दिखा है.इन दिनों के अनियंत्रित 'भोंपू' टाइप के 'लाउड स्पीकरों' से लथपथ 'कानफोडू कल्चर' पर भी कोई विधेयक बनना चाहिए जहां बेचारी विद्यार्थीजात और स्वाध्यायी किस्म के लोगों की मानसिक शांति हराम होती रही है.
  • भारतीय सिनेमा के सौ साल के इतिहास में हिंदी साहित्य ने कम ही सही मगर बड़ी यादगार फ़िल्में दी है.'नया ज्ञानोदय' के फरवरी २०१५ अंक में प्रांजल धर का लिखा पढ़ने के बाद मैंने रात में 'उसने कहा था' फिल्म देखी.बिमल रॉय ने क्या खूब फिल्म बनायी है.चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की जो कहानी आज से सौ साल पहले 'सरस्वती' नामक पत्रिका में छपी उसी पर सन साठ में इसी नाम से एक फिल्म आयी थी.सलिल चौधरी के संगीतबद्ध और प्रगतिशील गीतकार शैलेन्द्र के लिखे गीत थे.संवाद बेहतरीन है.अपने ठेठपन को बनाए रखते हुए.रिश्तों के मध्य की संवेदनाओं को पूरा स्पेस देते हुए एक बेहतर फ़िल्म.अभिनेता सुनील दत्त और अभिनेत्री नंदा की अदायगी से पूरी हुयी यह प्रेम कहानी लाज़वाब है.विकिपीडिया अगर सच बोलता है तो इसके अनुसार आपको जानकार अचरज होगा यह मोनी भट्टाचार्य की बतौर निर्माता पहली फ़िल्म ही थी. इससे पहले वह बिमल रॉय के असिस्टेंट के रूप में 'मधुमती' और 'दो बीघा ज़मीन' बना चुके थे.अब 'प्रेम' के नाम पर जेहन में 'नंदू' और 'कमली' का किरदार घर कर गया.वक़्त मिल तो ज़रूर देखें.
  • 'नया ज्ञानोदय' के फरवरी अंक में गंभीर और संवेदनशील मुद्दों को समेटती सम्पादकीय से शुरू किया था.युवा कथाकार पंकज सुबीर की लिखी कोई पहली कहानी पढ़ी. क्या गज़ब की गूंथ है.''लव जिहाद उर्फ़ उदास आँखों वाला लड़का' बधाई पंकज भाई.नन्द बाबू पर नन्द भारद्वाज जी और 'विखंडन' कहानी पर रमेश उपाध्याय जी का लिखा विवेचन भी पढ़ा जाना चाहिए.प्रांजल भाई ने गुलेरी जी को नयी दृष्टि से देखा और लिखा है.ब्रजेश कानूनगो जी की एक कविता ही बहुत सारी कविताओं पर भारी लगती है.अल्पना मिश्र की कहानी 'नीड़' में भी कहानी कहने की अपनी शैली जुदा ही महसूस हुयी है.पढ़ना जारी है.डिनर के ठीक पहले और डिनर के ठीक बाद:'बनास जन' के छ्टे अंक में प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार और आलोचक संजीव कुमार की कहानी 'घोंघे' और प्रसिद्द लेखक और कवि विष्णु नागर जी की लिखी कहानी 'मरने के बाद रोना' का सस्वर पाठ किया.श्रोता थीं नंदिनी.अब तानपुरा बजना शुरू हो गया है हमारा रात का स्वाध्याय शुरू
  • दूर के मित्रों और जानकारों से फोन पर बात करने का सुख देर तक याद रहता है और उसकी गर्माहट देर तक अनुभव होती है.जैसे इसी सप्ताह अलवर वाले जीवन सिंह जी,उदयपुर के माधव हाड़ा जी,कोटा के ओम नागर और अम्बिका दत्त जी,जयपुर के संदीप मील, भाई कालू लाल कुलमी, रेणु दी,ठाणे के रामजी यादव,जोधपुर के हरी व्यास जी,दिल्ली के भानु भारती जी से बात की.
  • 'फेल' होने के अभ्यास के बीच इस बार राजस्थान लोक सेवा आयोग की 'सेट' परीक्षा हिंदी विषय के साथ पास.मैं अपने 'सेट' परीक्षा में चयन के लिए मेरे वरिष्ठ मित्र और दिशा निर्देशक रहे डॉ.कनक जैन,डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी और हमारी डॉ. रेणु दीदी को सार्वजनिक रूप से शुक्रिया कहना चाहता हूँ.

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें

 
TOP