कविता
रंग जीवन के
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बात छिड़ी है रंगों की तो,
जीवन रंगी पाया है,
कुछ अपने,कुछ पड़ौसवाले,
कच्चे,पक्के और चमकीले,
रंगों का बादल छाया है,
आंखों के आगे,आज फ़िर से,
याद आये रंग बिछुड़े हुये बरसों के,
पर सतरंगी दुनियादारी है,
सतरंगी रहा कभी आसमां भी,
रंगबिरंगी इस धरती के,
रंगों में फ़रक देखा है,
कुछ हल्का,कुछ गहरा सा,
थोड़ा ही पर जीभर देखा है,
बरस रहा वही रंग फ़िर.
कुछ अपना सा,कुछ अपने पर भी,
परायों को भी जोड़ने लगा हूं प्यार से अब,
जो आज़ फ़िर है रंग बातों में दिल मेरा,
काला भी,कलूटा भी,
पीला भी लगा कभी,
पुरानी साईकिल सा मटमेला,
बंज़र धरती सा धूंधला,
सब कुछ शामिल पाया है,
आज़ उसी पोटली को खोलने को,
वक्त आया है फ़िर से,
रंगों की जब बात छिड़ी तो,
जीवन रंगी पाया है,
रंगी चादर ओढ़ ओढ़णी,
पिया पुकारे बारी-बारी,
रंग चढा़ जब उतरे ना,
याद आये रंगरेज़ बारी-बारी,
चादर-चादर फ़रक दिखाये,
सबकी अपनी चादर है,
किसी को रंग गुरू भर गया,
तो किसी की चादर खाली है,
तरसता है कोई रंग के लिये,
हाथों में थामे चादर अपनी,
सालभर की बाट पूरी होने को है,
आयेगा कोई ले मुठ्ठीभर गुलाल
मल देगा प्यार से गाल पर शायद,
या रंग देगा मेरी चादर भी बची-कुची,
मदमाती है दुनिया सारी,
ओढ़े अपनी चादर क्यूं,
कोई खोया-खोया है,
कोई बदल रहा है यूंही,
चादर अपनी चुपके से,
छिपकर कोई छूटा रहा है,
करतूतों का मटमेला रंग,
कोई आनन्दित जी रहा है,
साफ़ सुथरी चादर ओढ़े,
रंग बिरंगा भीगा-भीगा,
जीवन सबका न्यारा है,
हरिया-हरिया किसी की राहें,
किसी की काली-काली ही,
पल-पल देखा रंग बदलता,
कभी सीधी कभी मुड़ मुड़कर,
यूं ही चलती देखी जीवन धारा है,
कोई भरता है रंग कागज़ पर,
कोई खेती-बाड़ी में,
भरने को रंग ज़िदंगी में,
कोई सड़कें नाप रहा है,
कोई डूबा है एक ही रंग में,
पर कोई सतरंगी छाप रहा है,
लिपा हुवा आंगन और चौपाल का बरगद,
केंसुले के फूल और गोधूली की धूल,
आज भी जीवन में रंग सजाता है
मोहल्ले सी बनी बस्ती,
और बस्ती में बीता जीवन,
शहर की भागादौड़ी में,
रह रहकर याद आता है,
बीते पलों के उन रंगों की,
याद सजाये बैठा हूं,
अपनेपन से कौन सुनेगा,
बस चुप लगाये बैठा हूं,
गूंगी कहानियों में शामिल समझ लिया है
खुद को और अपनी कहानी को
मेरे ही रंग लगे धूंधले से
लगा कि ज़माना बदल रहा है........