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10 मार्च, 2010

अपनी कहानी-4

               कुछ सोचने को कह्ती हुयी एक बात बहुत दिन से कहना चाहता था वो ये कि,आजकल घर से ज्यादा दोस्तों में मन लगता है,कहीं कहीं न ये गलत भी और गैरजरुरी भी.अपना जीवन कभी भी एकसी रफ़्तार से नही चल पाया.शहर में रहते हुये गांव याद आया तो कभी गांव में रहते हुये शहर की बनावटी दुनिया,याद आयी.पारिवारिक मतलबबाज़ी से जी चुरा कर तो हम पढ़ाई करके कुछ बन बना गये.मगर अब जब परिवार की जिम्मेदारी आयी तो भागकर जायें तो जायें कहां? भाग नही सकते हैं,ये ही एक बड़ी गहरी सच्चाई है जीवन की.सप्ताहभर में मुश्किल से नहाने वाला मैं अब साबुन लेने से पहले दस पड़ताल करता हूं.किताबों का थैला कहीं झाड़ियों में छुपा कर स्कूल के बजाय खेलते फ़िरने के सिवाय कुछ याद नहीं,और अब बस,घर,स्कूल य दोस्तों में हो किताबें,समाचार,पढ़ने-लिखने की दुनिया के मुद्दे चल पड़ते हैं.ये बद्लाव बहुत अच्छा लगता है.

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