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11 मार्च, 2010

गांव


गांव


सूखे और सड़ेगले पत्तों से,
ढ़की है राह जिसकी,
टोह तक ना ली बरसों से अखबार ने जिनकी,
दुबका हुआ,ढ़केला सा,
कोने में छुपा हुआ पाया कभी,
साफ़ सुथरे कागज़ पर,
काला काला सा,
अपना गांव लिखा है मैंने 
आज़ फ़िर से ऐसा ही,
है सच्चाई सबकुछ,
झुठ नहीं है कुछ भी,
बस्ती और बच्चे मस्त हैं बकरियों में,
बड़े-बुज़ुर्गों का मन लगा मज़ुरी में,
इकलौते स्कूल के इकलौते गुरूजी,
ही बजाते हैं घण्टी दस बजे की,
उपर से दोपहर का मुफ़्त भोजन,
का इन्तजार लिखा है, 
मेरे गांव की किस्मत में,
गुज़र गये छ: महिने फ़िर भी,
कोपियों के कागज़ साफ़-साफ़ हैं,
नाव और हवाईजहाज़ बनाते बच्चों के,
बीत गये दिन कैसे,पता नहीं,
हां देखी थी सलवटें और मुड़े़ हुए पन्ने,
थोड़ी बहुत किताबों में,
ऐसे में खूंटी पर टंगा बस्ता और,
 कंकड़ों से खेलते बच्चे,
यही हरकत,यही बरकत,
लिखी है मैंने गांव में,
फ़ुरसत लगे तो नहा लेते,
गन्दे और गूंगे से लगते लोग,
जानते है बहुत कुछ,
मगर बोलते नही मौके पर,
कम आमदनी,कम खर्चे और कम रोशनी, 
के आदी बन गये हैं वे,
उबड़-खाबड़ आंगन पसरे बच्चे और,
गिनेचुने पत्थरों की दीवारें भाती है उन्हें,
यूं कहिये बस बेतरतीब मकान,
संकड़ी गलियां लिखी है मेरे गांव में,
 और लिखा है जाते-जाते,
गोबर और बैलगाड़ियों का साथ भी,
कांख के नीचे से फटा शर्ट, 
और वहीं से झांकता है असल जीवन उनका,
नंगे पांव दौड़ती प्रौढ़-आयु दनादन,
 और बिन लकड़ी के बुढ़े,
जातपात से लिपेपुते हैं घर इनके,
शेयर बाज़ार और वोलीवूड से फ़रक नही इनको,
इनकी अपनी दुनिया है,
इनका भी बाज़ार खुलता है दिन उगे से,
और बन्द होता है रात तले,
नुकसान ज्यादा और मुनाफ़ा कम,
लिखा है इनके शेयर में,
भभूती लगाने से जी उठते हैं, 
मगर कहीं, 
राह चलते भी चल बसते हैं,
ननिहाल में बिते बचपन की तरह,
बेपरवाह जीते है सभी,
जरुरत से ज्यादा चालाक भी,
लगते हैं कभी,
माण्ड रखी है कागज़ों में ही इनके,
कुआ,हेण्डपम्प,पनघट,
और शहर को जाती सड़क भी,
हां आ पंहुची है अभी तलक
कोरी गाजर घास यहां,
योजनाऎं पीछे वाली बस में आयेगी शायद,
लोग यहां के बड़े भले हैं,
सच्चे दिल पर साफ़ लिखा है इनके,
खुल्लम-खुल्ला पढ़ सकता है,
कोई आता-जाता,
मज़बूरी,शोषण,अनदेखी,
और फ़ूटे-टुटे घरबार,
खेत इनके हैं,
मगर बारहखड़ी ,
गांव का बनिया बोलता है,
सीखी ही नही इन्होनें, 
हांसिल वाली झोड़-बाकी,
कभी स्कूल के दिनों में,
ईठलाता है अंगुठा लगाता आदमी,
आज़ भी बेखोफ़, 
बिनपढ़ी औरत शरमाती है अपनों में,
नंगे तार देख बिज़ली के,
कानून लांगता है कोई आदमी,
और बिना गलती के भी, 
पूलिस देख भागता है कोई आज़ भी,
ये ही इनकी भोली सूरत,
ये ही एक परिभाषा है,
दीप जलेगा,लोग जगेंगे,
पल ऐसे भी आयेंगे,
शहर सुनेगा,और हमसब भी,
हक मांगने की तैयारी से 
जब गांव चिल्लायेंगे........................


 
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