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15 फ़रवरी, 2010

सच का सामना

सच का सामना
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अनजाने सफ़र सी कट गयी उम्र,
अब तलक तो,
कई बार फ़रक दिखता रहा साफ़ साफ़,
महल और झोपडपट्टी का,
अंग्रेजी के पिछे भागते भागते,
जीवन की बाहरखडी भूल गया है आदमी,
कोई धन के नशे में तो कोई जीवन की आपाधापी में,
देख शहर की बस्ती को,
रूमाल नाक पर टीकाता है आदमी,
गन्दे नाले के पास कच्चे मकानों की लम्बी कतार,
पुलिस की दबीश पर याद आती ये बस्तियां,
या कि फ़िर जुनेपुराने कपडें बांटते,
अमीरों की दोगली नीति पर,
वार त्योंहार पर चिन्तन के दो शब्द के साथ,
अखबार में छपी गरीब लोगों की फोटो,
काम आती है दांतो तले अंगुलियां दबाने के ,
वहां तक नही जाते महंगी कारों के पहिये ,
बात एक और कचोटती है ,
अब इन दिनों कि,
कभी कभार ही पहुंचती है जहां,
सरकारी मदद की राशन सामग्री ,
अब तो लगने लगा है ये भी कि,
बस्तियां काम आती है अक्सर,
कवितायें और आलेख घडने में,
कभी चितेरे आकर ,
अपनी तस्वीर की वज़ह ढुंढते है यहां,
इन खपरेलनुमा,छप्पर वाले,
या कि बैलगाडियों पर बने चलते फ़िरते ,
सरल-सपाट मकानों में,
कथाकारों  की कहानियां के सम्वाद,
छुपाछुपी खेलते दिख जाते यहीं कहीं,
यहां आने वाला हर कोई,
पुछताछ नही करता, नही करता बात,
कोई उनके लिये दो वक्त की रोटी की जुगत पर,
ज़मीन के आसपास की उनकी दुनियां,
से मुलाकात कराती मेरी सुबह की सेर,
रोज़ लौट आता हुं,उसी बस्ती के पास जाकर ,
फ़िर घर की ओर,
रोज़ रोज़ की सेर कराती है मुलाकात,
सच से,
यूं दिखाती है फ़रक जीवन के रंगों का,
सोचा था सतरंगी नज़ारा ,
इतना अन्दर तक कुरेदेगा,
 
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