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16 अगस्त, 2010

कविता-''बुनियादी अन्याय ''

बुनियादी अन्याय 
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जो उगाता है 
भूखो  मरता है
जो कमाता है
वो गरीब है आज
आराम कुर्सी  पर बैठे 
अमीर कहे जाते है लोग कई
 दौलत बनाता है वो 
किसान है
निक्कमा आदमी 
धनवान  है आज 
नारा लगाते कुछ लोग
ज़मीन,जंगल जहां जहां
आदिवासी वहाँ वहाँ
छीनो, झपटो,मार भगाओ
जितना लूट सको लूट जाओ 
झगड़ा -लफड़ा रहा वहाँ 
जहां  खज़ाना है बरसों का 
कैसे भागे वो बेचारा
ठोर नहीं जिसका नहीं ठिकाना 
ज़मीन के बदले ज़मीन तक नहीं
कुटिया की बात बेमानी है
छोड़ भागते उन लोगों की अबलाएं 
लूटी जाती है
इस पर भी भारी 
नन्हे-नन्हे बच्चों की
बुआ रोती आती है
बच्चे की अंगुलियाँ काट-काट 
डराते मां-बाप को 
अब भागने का वक्त चला गया 
तीर कमान सब धरे रह गए
जब बंदूकें दनदनाती है
रखवाला ही रोज़ डराता 
किसे कहे और कौन सुने
 अब बोलेगा ज़रूर वो गूंगा 
पानी सिर के पार है
वो चुप रहे कब तक आखिर 
अचरज की कोई बात नहीं
 
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