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25 जनवरी, 2011

कविता;-मिले सुर मेरा तुम्हारा

मिले सुर मेरा तुम्हारा
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सज्जन,कर्मठ और ज्ञानवान
धरे रह जाएंगे 
फिर से इस बार
तिरंगे पर 
चापलूस सम्मान पा जाएंगें
गुपचुप सूचियाँ बना करेगी
तयशुदा नामों की
कुछ दिखावटी दांत हँसेंगे
कुछ तो छला जाएगा
शॉल-नारियल कांख दबाए
घूम रहे हैं कुछ लोग इधर
सम्मानित होने जैसे
ठेठ उपर तक की सिफारिश है 
जाएंगे कहाँ भला ईनाम बचकर
सोच-सोचकर माथा ठनके कि   
जो देने वाले हैं
लगता है कई बार
वो ही पाने वाले 
इनके हित परम्पराएं फिर टूटेगी
क़ानून लांघे जाएंगे
 फिर से आज टुकड़मबाज़ सम्मानित होंगे
बरसों से खड़े पंक्ति में कुछ लोग
बुढ़ाए और बारी के इन्तजार में 
ओढ़े तन पर स्वाभिमान की चादर
एक बार फिर छूट जाएंगे
करे भी तो क्या
फितरत यही इन मंचों की
बैठें हैं लोग 
इधर के और उधर के
अखबारी कतरन में जी अटकाए
कुछ लोग बिचौलिए
कुछ अफसरजात
डूबे हुए हैं इसी गलतफहमी में
उनका चुना हुआ ही असली है
 और असल काम वाला नकली जैसा  
गढ़ दी हैं नई परम्पराएं जैसे 
तुम मुझे बुलाओ
मैं तुम्हे बुलाऊँ 
चले सफ़र यूंही अपना
अपनों में ही बंटे ईनाम
कोई और न ले जाए
सांठ-गाँठ का ये आलम 
बरसों चले हमारा
मिले सुर मेरा तुम्हारा
 
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