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27 जनवरी, 2011

कविता:-झंडे की छ:माही याद

झंडे की छ:माही याद

झंडा रख दिया है गुरूजी ने पेटी में
 फिर छ: माह के लिए
और बच्चों ने मेल उतारने का पत्थर टांड पर
अगली छ: माही की बाट में 
जब दूसरा झंडा उत्सव आएगा
जिसके एक दिन पहले 
मिलेगी छुट्टी नहाने की
एकलौती स्कूल पौशाक 
धोने-झकोलने के हित
ठिठुरते हाथों की तालियों के बीच 
फिर फहरेगा तिरंगा
अगली छ: माही पर
नाचते कूदते शर्म पिगलेगी
धीरे धीरे नौनिहाल बच्चों की
शहीदों को याद करते हुए
भूल जाएंगे
देश के हालातों से उपजे पेट के मरोड़ों सा दर्द
आदत पनपती है भावी नागरिकों में
यहीं से कुम्भकरणी नींद की
घंटेभर का देशगान
बाकी अटरम-शटरम
 झंडे के बहाने स्कूली उत्सव का व्यायाम
और गरीबी में बमुश्किल ख़रीदे जुत्ते-मौजे
बहुत याद आएँगे
एक  लड्डू और बावन सेकण्ड का राष्ट्रगान
कुछ कुदाफान्दी 
बस हो गया झंडा
परिभाषाएं ऐसी 
फिर दोहराएंगे गुरूजी
छ: माही के बाद
पद्म सम्मानों से भी भारी
रहेगा वो दांत मांझने का ब्रश
कविता करने के बदले मिला जो ईनाम में
सर्द हवा में भी
बस्ती वाले बच्चों के गलों से
निकले रटेरटाए नारों पर टिकी
बस्ती में घूमती झंडा रैली
निस्वार्थ और बिना लागलपेट सने भावों वाली 
फिर निकलेगी
मगर छ: माही के बाद
लोग रैली देख
अचानक बतियाएंगे एकदूजे से
शायद आज झंडा है 
कितना विलग हैं ये झंडा दिवस
कभी बेचारगी के हवाले पड़ा कौने में
लगा कभी 
आधे दिन की छुट्टी
का आनंद देता त्यौंहार भी 
 
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