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05 मार्च, 2011

किले में कविता;-मन की ठाने चार कबूतर

जाने अनजाने
इतवार के इतवार किले में
हो जाता मेरा पगफेरा
शहर से कुछ ऊँचें पहाड़ पर 
हाँ वीरान महलों का लगा एक डेरा
एकांत खोजते पाँव मेरे जा लांघते
महल-दर-महल,करते ड्योढी पार
नज़र आते आँगन बैठे 
चार कबूतर एकदम सीधे
सार खोजते बैठे चिंतनमग्न
कि भोंकें कुछ कुत्ते
जान-बूझकर और आदतवश
बैठक टूटी ,सारा निष्कर्ष रास्ता डूल गया
पर राह मिल गई उन्हें
जो बैठे ताक में यहीं कहीं  
हसरत पूर गई बंदरों की मानों
जों ही कबूतरों की आशा डूब गई 
सृजन-सरोकार नाम जैसे कबूतर उड़ चले
फिर इतवार की बारी में वो चार
फड़फडाते हुए मानो अभी चीर देंगें वितान 
सहित उनके मैं एक भी चला अपनी ठोर
जाना उस दिन मैंने सच कबूला एक 
कि नीरवता बेचारी कब तक रुकती
इस कलमुंही वानरराज में
बिना काम महल फिर हुआ बदनाम उधर  
इधर बन्दर-कुत्ते कर गए अपना काम 
सच आज मूंह फाड़ कर चिल्लाता है
कि सज्जन,साधुजन अब न खोजे विराना
इन खंडहरों सी इमारतों में
अब बसती है कान फाड़ती भगदड़
जी मेरा.कलम मेरी,कागज़ मेरा कुर्बान
फिर उन्ही चार कबूतरों के होंसलों पर
जो होंसला बंधाती मुझे भी लिखने को कहते
बेपरवाह,हो निडर फिर आ बैठते आँगन में
वो चार कबूतर 
इतवार के इतवार

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