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15 मार्च, 2011

किले में कविता;-सच को अब सपाट लिखें

तुम अब नया विचार दो कि
सच को अब हम सपाट लिखें
धुंधला रहे इस वितान को
यूं मिलके साफ़-साफ़ लिखें

दूर-दूर महल खड़े हैं सारे
ढेरों अवशेष पड़े हैं दूर-दूर
गर तुम हाथ बढ़ाओ ज़रा
कुछ तो आस-पास लिखें

आते हुए नवाएँ लोग सर 
यहाँ जाते हुए लगाए धोग
लड़ालूम हो जाए खँडहर यूं
उघड़ा हुआ इतिहास लिखें

जड़विहीन बेलों-सी बातें क्यूं सींचें 
जब तथ्यों की टहनी खुद बात करें
किले को जाती राहों पर आओ
अब कुछ बरगद,फूल-बहार लिखें

खूब रही खुले में पथरीली दौलत
क़ानून-कायदों का कुछ भान करें
कि मधुशाला बनती इमारतों में
फिर जौहर-शाकों के अंगार लिखें

दनदनाती बंदूकें-तोफें मिली अतीत में
सहती,डरती,दबती और बुझती ऐसी ही
ढहती हुई इमारतों के हित आओ
कुछ गीत-ग़ज़ल-मल्हार लिखें

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