कौन नहीं जानता है कि
गड्डे,नालियां और स्पीडब्रेकर हैं बहुत
बनी और बची हुई है फिर भी सड़क
अपने होने के अहसास से बेखबर
सतत,गूंगी और चुपचाप
काम में लगे हुए किसान की तरह
शोषित,पीड़ित और सुविधारहित
पगडंडियों का भी यहाँ आकर
यूं साथ छोड़ देना बीच दौर में
बापदादा की प्रथाओं के टूटने
छूटने-का सा दर्द छिटकता है
बाकी चलने वाले चले जा रहे हैं
कुछ एकाकी,कुछ स्वार्थरमे
इन बहरों में उसकी पीड़ा कौन सुने
यूं बस सहती है आघात सड़क
सांप,ऊँट और खेत की मेढ़-सी
चलती अदल-बदल कर चाल
धंसने-गढ़ने की पक्की अभ्यस्त
मनचाहे आड़े-तिरछे मौड़
लेती हुई देती है संकेत पहले
मुड़ने, तुड़ने और जुड़ने के
लगती है ग्राम्य बाला-सी निर्दोष
लगभग दुबलाई-पतलाई सड़क
बचपन और ननिहाल-की सी
डबलमस्ती वाले दिनों में
उन भरपेट लोगों ने जाने क्यूं
ढाब रखा है शहर में यूंही
पकड़े हैं कसकर सड़क
और इधर कि बावले लोग गांवों के
दिनभर के थके हाथों में
थाली,मांदल लिए तैयारी में
अपने बुढ़ाते फैंफडों में फूँक भरके
तैयार वही मशक बजाने को
जिसके फूंकने पर आई
पचासों बहुएं गाँव के छोरों हित
पचासों बहुएं गाँव के छोरों हित
ज्यों के त्यों खड़े लोग गाँव के
यूं सड़क की अगवानी में
ज़ल्दी ही आने की कह गए
परदेसी बाबू-सी झूठी लगती है योजनाएं
डामर,पूल और रोलर आए नहीं
डामर,पूल और रोलर आए नहीं
न फीताबाबू दिखा,न चुनाढोलू आदमी
आया भी नहीं नाप लेने कोई तब से
जाने कहाँ चला गया मतदाता समझकर
जनता जान मुझको छोड़ गया इस हाल
अजीब मसखरी योजना थी वो
लगती थी जादूगरनी सी
कि आती हुई तो दिखती थी
और जाने फिर कहाँ छू-मंतर
सड़क पर पहले भी एक कविता आई थी आपकी लेकिन यह कविता कहीं अधिक सार्थक और गंभीर है.. बेहतरीन कविता...
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