उन चेहराछिपाऊ लड़कियों की
मानिंद अब पहचाने नहीं जाते
हालात के हवाले छोड़े ये किले
गिरते उठते जैसे-तैसे चलते
जीवन जुगाड़ते बूढों से हांपते
केमरे वाले दो क्लिक के बीच ही
आराम भोगते हैं खंडहराते महल
कभी सर्वथा अकेले रहते निर्जन
कोठरी में खटियाते-खेंखारते वृद्धों से
कभी दुबककर देश-काल को नोचते
यादों की गर्माती चादर ओढ़े चुपचाप
कभी अगाड़ी देखते,कभी पिछाड़ी
कभी इतवारिया हाट से लौटती हुई
लगभग अश्वेत बालाओं से होते
आनंद से लदे,ज़मीन से दो अंगुल ऊपर
समेटे हुए खुद में भरपूर उमंग
समेटे हुए खुद में भरपूर उमंग
कभी बड़बड़ाती हैं स्वगत संवाद सी
हज़ारों आँखे लिए ये धड़कती इमारतें
सहती,हंसती,अक्सर चुप ही रहती
देख नज़ारे,जहां टहलते हैं गुपचुप
बेपेंदा आदमी और घरबिगाड़ू औरतें
यहीं विचरती हैं डरी,सहमी,गुनहगार-सी
चालबाज़ युवाओं सहित फांसी हुई युवतियां
यूं रहा नहीं अब इतिहास जैसा कुछ इधर
अब सबकुछ यहाँ वर्तमान हुआ जाता है.
सोचो,तनिक सोचो किले के हित अब तो
आगे आओ तथाकथित चिंतकों
पेड़ सूखते हैं,पानी घटता जाता है
बुद्धी-विवेक से डाकिए कह गए आज
कि मटमैली लाशों में तब्दील होते हुए
शमशान जाने को तैयार महल-मिनारें
चार कांधों की बाट जोहती इमारतें
पथरीले इंसानों के बीच लड़खड़ाती-पगलाती
असमय भरभराती,कुम्हलाती ये इमारतें
अकाल मरे पुरखों सी याद आती हैं श्राद्ध में
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें