झुके हुए क़ानून-के से
ये बुढ़ाते लोग गाँव के
ढीलाते कपड़ों में लटके-से
जैसे-तैसे अटकाए बची साँसें
ज़बडों में दुबके है सच जिनके
बहुतों को अनसुना कर दिया जाता
लोकतंत्र में बिना हो-हल्ले के ही
थलग पड़ते गंवई किसान की तरह
बेअसर तर्क ढ़ोते हुए उन
बोकलाए बुजुर्गों-सा हो गया
दन्तविहीन क़ानून,देश का
कि जुर्मों से बासते ऊंचे घरों के
सफेदपोशों का सपाट बच जाना
अखरता है मुझको जाने कब से
वो घटता नहीं कभी,बढ़ता ही जाता
जो स्व हित राष्ट्र बांटता आज़कल
किड़ाती दाड़ों के दर्द-सा काटता है
अकूत खजाने का लालच ले गया
धकेल गया उन्हें गहरे कुए में,जो थे
सुखदेव-भगत-सुभाष-सी उम्र के
सबकुछ लीलता वर्तमान,पनपाता है
छोकरीबाज़ युवा,पहचानी लतों सहित
देख यही कुछ दु:खी मन कोसता है
जाने कहाँ जाकर थप्पी देगी ये
लगभग ज़हरीली,मनमानी हवाएं
जिनसे लड़ता अतीत,रोता हैं आज़कल
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें