भूपेन हजारिका |
लोग ज़िंदा इंसान को उतना नहीं मानते जितना कि उसके मरने के बाद उसके नाम और काम को लेकर कलमें घिसते हैं.आज जब भूपेन हजारिका नहीं रहे तो आओ हम भी अपने मन की कह लिख लें.ये बात भी सच है कि लोगों की नज़र में फ़िल्मी दुनिया में काम करने वाले लोग कुछ महत्व के होते हैं,उनके लिए ताज़ा समाचार में शामिल करना संवेदनशीलता से ज्यादा रेटिंग का सवाल होता है.ये वही दौर है जब कई दिग्गज चल बसते हैं और हर बार मीडिया में उनका उस हद ज़िक्र तक नहीं होता है जितना उनका कद रहा होता है. आदमी के मरने के बाद भी उसके लिए पी.आर. देखने वालों की ज़रूरत पढ़ने लगी है.ध्रुपद के उस्ताद फहीमुद्दीन डागर चले गए.रूद्र वीणा के खंडारवाणी शैली के गुरु उस्ताद असद अली खान चल बसे.आहात तो हुई मगर उस ऊंचाई तक नहीं.समय-समय की बात है.
ये भी अजीब मामला होता है कि हम लोग भी तो अब ख़ास लोगों के चल बसने के बाद ही उन्हें महान घोषित करते हुए उनके किए काम को एक नए सिरे से देखना,पढ़ना और समझना शुरू करते हैं. कई पाठक ऐसे भी होंगे जो श्री लाल शुक्ल के चल बसने पर 'राग-दरबारी' पढ़ने बैठेंगे.इस ज़माने के इन विलग-विलग अंदाज़ का अब आप क्या ज़वाब दोगे. उससे भी अजीब बात ये कि लोग नामचीन चहरे ही पहचानते हैं.ये नामचीन वे हैं जो टी.वी. और अखबार पर छपते/दिखते हैं. आप भी नामचीन बनना चाहते हैं तो इसके लिए बड़ी लम्बी दौड़ का मैदान पारना होगा.या कि फिर आपको आपके खुद के मरने का इंतज़ार करना होगा.क्योंकि हो सकता है आप बहुत अच्छा काम/लेखन/अभिनय कर रहे हों मगर उसके लिए ज़माने को अभी तक तो फुरसत नहीं हैं.
हाँ तो हम भूपेन दा की बात करना चाहतेहैं कि आवाज़ का अनौखा लोक अंदाज़ चला गया.पुराने गीतों की लम्बी चौड़ी फेहरिस्त में भूपेन के चंद गीत भी भरसक तरीके से प्रभावित करते हैं.साल दो हज़ार ग्यारह की ये नवम्बर पांच का दिन संगीत के रसिकजन कैसे भूलेंगे जब भूपेन दा जैसे लोग हमारे बीच नहीं रहे.ये वो पडाव है जब वे पिचासी की उम्र की दहलीज़ पर थे .उनके काम को जिन्होंने बहुत बारिकी और नज़दीकी से देखा हो वे ही उनके जाने का असली दर्द समझ सकते हैं.
उनका जाना मेरी नज़र में बिरहा गायन के सिद्धहस्त इंसान राम कैलाश यादव,छतीसगढ़ी परम्परा के रंगकर्मी हबीब तनवीर ,राजस्थान के कोमल कोठारी के जाने जैसा ही है. देश में बड़ी हानि तब होती है जब कोई लोक कला का पुरोधा चल बसता है. क्योंकि वो ज़मीन से जुड़ा रहते हुए ही संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता है और यथासंभव अपने धरातल को सदैव याद रखता है.यही उसके बड़े होने का मुख्य आकर्षण भी होता है.भूपेन हजारिका अगर नहीं होते तो असमिया लोक कला के अंदाज़ को हम उस हद तक भी नहीं सुन पाते जहां तक वो आज पहुँचा है.समय की तकनीक के सहयोग से यू-ट्यूब आज भूपेन के गीतों से भरा पड़ा है.आप खुद सुनके अंदाज़ लगा सकते हैं.
ये भी अजीब मामला होता है कि हम लोग भी तो अब ख़ास लोगों के चल बसने के बाद ही उन्हें महान घोषित करते हुए उनके किए काम को एक नए सिरे से देखना,पढ़ना और समझना शुरू करते हैं. कई पाठक ऐसे भी होंगे जो श्री लाल शुक्ल के चल बसने पर 'राग-दरबारी' पढ़ने बैठेंगे.इस ज़माने के इन विलग-विलग अंदाज़ का अब आप क्या ज़वाब दोगे. उससे भी अजीब बात ये कि लोग नामचीन चहरे ही पहचानते हैं.ये नामचीन वे हैं जो टी.वी. और अखबार पर छपते/दिखते हैं. आप भी नामचीन बनना चाहते हैं तो इसके लिए बड़ी लम्बी दौड़ का मैदान पारना होगा.या कि फिर आपको आपके खुद के मरने का इंतज़ार करना होगा.क्योंकि हो सकता है आप बहुत अच्छा काम/लेखन/अभिनय कर रहे हों मगर उसके लिए ज़माने को अभी तक तो फुरसत नहीं हैं.
हाँ तो हम भूपेन दा की बात करना चाहतेहैं कि आवाज़ का अनौखा लोक अंदाज़ चला गया.पुराने गीतों की लम्बी चौड़ी फेहरिस्त में भूपेन के चंद गीत भी भरसक तरीके से प्रभावित करते हैं.साल दो हज़ार ग्यारह की ये नवम्बर पांच का दिन संगीत के रसिकजन कैसे भूलेंगे जब भूपेन दा जैसे लोग हमारे बीच नहीं रहे.ये वो पडाव है जब वे पिचासी की उम्र की दहलीज़ पर थे .उनके काम को जिन्होंने बहुत बारिकी और नज़दीकी से देखा हो वे ही उनके जाने का असली दर्द समझ सकते हैं.
उनका जाना मेरी नज़र में बिरहा गायन के सिद्धहस्त इंसान राम कैलाश यादव,छतीसगढ़ी परम्परा के रंगकर्मी हबीब तनवीर ,राजस्थान के कोमल कोठारी के जाने जैसा ही है. देश में बड़ी हानि तब होती है जब कोई लोक कला का पुरोधा चल बसता है. क्योंकि वो ज़मीन से जुड़ा रहते हुए ही संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता है और यथासंभव अपने धरातल को सदैव याद रखता है.यही उसके बड़े होने का मुख्य आकर्षण भी होता है.भूपेन हजारिका अगर नहीं होते तो असमिया लोक कला के अंदाज़ को हम उस हद तक भी नहीं सुन पाते जहां तक वो आज पहुँचा है.समय की तकनीक के सहयोग से यू-ट्यूब आज भूपेन के गीतों से भरा पड़ा है.आप खुद सुनके अंदाज़ लगा सकते हैं.
अजीब बात ये भी रही कि अपनी खुद की प्रतिमा का तक उदघाटन करने वाले भूपेन को आम आदमी रुदाली के उसी गीत से जानते हैं. 'दिल हुम हुम करे,घबराए' अब कुछ दिन तक याद रखकर लोगों द्वारा सूना जाएगा,ये ही वो गीत नहीं जो उन्हें सबसे ऊंचे पायदान पर ले गया था बल्कि लोक गीतों की भरमार है जिसे आप समय निकाल कर एकबार सुनिएगा. आज वे नहीं हैं मगर उनका वो फोल्क कल्चर वाला अंदाज़ हमारे बीच ही है.सन बरानवे में दादा साहेब फाल्के जैसे इनाम भी उनके नाम हुए हैं.सारे के सारे ईनाम तब तक बेमतलब के ही रहते हैं जब तक कोइ भी कलाकार दर्शकों और श्रोताओं के दिलों पर अपना कब्जा नहीं जमाए.हरफनमौला इंसान भूपेन हमें कई रूपों में याद आएँगे.जीवन के इस नौवे दसक में भी वे फ़िल्मी दुनिया में काम कर रहे थे.ऐसी हिम्मत और साहस आज के दौर के आदमी भी कहाँ मिल पाती है.असमिया लोक कलाकारी के लिए तो उन्हें पूजा जाएगा ही मगर साथ ही उनके साहित्यिक अवदान को,उस प्रादेशिक साहित्य को एक ऊंचे स्थान तक प्रचारित करने के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा.
हजारिका का जन्म
असम के
सादिया में
हुआ था।
बचपन में
ही उन्होंने
अपना प्रथम
गीत लिखा
और दस
वर्ष की
आयु में
उसे गाया।
साथ ही
उन्होंने असमिया
चलचित्र की
दूसरी फिल्म
इंद्रमालती के लिए १९३९ में
बारह वर्ष
की आयु
मॆं काम
भी किया।भूपेन
हजारिका को
सन २००१
में भारत
सरकार ने
कला क्षेत्र
में पद्म
भूषण से
सम्मानित किया
था।उनके गाए
ख़ास गीतों
में ---
- सोम अमार रूपाहि
- ऑटोरिक्शा चलाओ
- बिश्टिर्ना पड़ारे
- दिल हूं हूं करे (हिन्दी फिल्म रुदाली (१९९३ फिल्म) के लिए)
- गजगामिनी (शीर्क गीत)
- गंगा
- मानुहे
आपको याद आते होंगे.वरिष्ठ साहित्यकार के रूप में पहचाने गए उनके बारे में एक वेबसाईट पर भी उनके बारे में और जानकारी पढी जा सकती हैं.अपनी माटी परिवार की तरफ से उन्हें भरपूर स्वरांजली ..............
उनकी कवितायेँ आदि उनके ब्लॉग 'माणिकनामा' पर पढी जा सकती है.वे चित्तौड़ के युवा संस्कृतिकर्मी के रूप में दस सालों से स्पिक मैके नामक सांकृतिक आन्दोलन की राजस्थान इकाई में प्रमुख दायित्व पर हैं.
|
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें