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17 जनवरी, 2012

17-01-12

जीवन कई बार विज्ञापन में कहीं कौने में किसी बारीक सितारे के पास शर्ते लागू के लिखे होने सा लगता है.या कभी लगता है सपाट चला जा रहा है बिना विचारे बस दिन ख़तम, करने की मानिंद.उठो,नहाओ,खाओ और फिर चल दो रोज के रास्ते पर,वही लोग वहीं आंकड़े,वहीं मंजिले,रोज रोज पारो और आभासी खुशी में मस्त रहो.वही पल्ली तरफ की कीचड़ वाली नाली कूद कर गाडी में किक मारना.रोज़मर्रा का दूध की डेयरी पर हिसाब करते लोगों के बीच कतार भोगना.गेलेरी में फैंके हुए अखबार को जमाते हुए पढ़ना.फिर फैंकना.

काम कभी ख़तम नहीं होते.गाँव में अक्सर दिखने वाली दम्बोई नामक जानवर की तरह से किसी भी तरफ से चलने की सर्पीली आदत से ये ज़िंदगी भी कहीं से भी मुडकर फिर जाने किस तरफ अपने मन को ले जाती है.पता नहीं लगता.बस जी रहे हैं.कोशिश यही लगी रहती है की हम बेहतर जीवन जी जाएं. लेकिन साले ये मुष्टंडे जीने कहाँ देते हैं.सीधे पेड़ काटने पर तुले रहते हैं.बिना सिंग की गाय देखी,पूँछ मरोड़ते देर नहीं करते.

वैसे आज की घटनाओं में यही लिखना है, अचानक युववाणी करने आकाशवाणी गया. सोचकर गया ऐसे विचार तो कह भी नहीं पाया. जो गीत सोचे सब बदल गए.पैंतालिस मिनट कैसे निकल गए पता नहीं चल सका. जाने श्रोताओं का फ़ायदा भी हुई होगा या कि उन्हें बोर ही कर पाया था. टी.वी. के दौर में सुनाने वालों का इतना क्विक प्रत्यूत्तर भी तो नहीं मिलता .चलो आज की दिहाड़ी पक गयी. दुनिया जाए कहीं भी.अपना तो चुल्हा जल गया आज का. बड़ी और ज़रूरी बात कहीं भूल नहीं जाऊं.आज एक लेखक से बात हुई तो पता चला वे रेडियो लगातार सुनते हैं. लगे हाथ उन्होंने पिछले दिनों प्रसारित काव्य गोष्ठी की पूरी रपट सुना डाली. दिल खुश हुआ.अपनी कविता के शिल्प की तारीफ़ भला किसे अच्छी नहीं लगती.एक बात की तसल्ली हुई और मन पक्का हुआ.आप कुछ भी सोचकर रेडियो पर बोले ,लोग आपको सुन रहे हैं. कुछ प्रतिक्रियाएं उनके मन में है कुछ आस-पास में बतिया रहे हैं.और कुछ आप तक पहुँच भी रहे हैं.मतलब साफ़ है. आपके काम को हज़ार आँखें देखती है. और रेडियो के रेफरेंस में पान्च्सों जोड़ी कान आपको सुन रहे हैं.

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