साल की शुरुआत में डायरी नहीं लिखी.आज दूजा दिन है जो तारीख लिखते ही स्पस्ट हो गया था,यहाँ आवृति हो गयी.कई बार ज्ञान कम और अधूरा होता है तो आवृति के दौर ही चलते हैं.खैर नए साल में सुबह आठ बजे उठा.पक्का सच यही है कि कल नहाया नहीं.लगभग आधा दिन चित्तौड़ में एकमात्र लाज रखने की मशहूर 'इमारत दुर्ग चित्तौड़' में बेटी अनुष्का के साथ रबड़ता रहा.बेमतलब मगर एक ज़िम्मेदारी के साथ,जो एक ढाई सालाना बच्चे को बिना रुलाए दिनभर उसकी माँ से दूर रखते हुए दिन बिताने पर जा ख़तम हुई. बहुत मुश्किलाना काम था..किले पर हर भांत की पार्टीबाजी देखी.किशोर-किशोरियों के चिल्लाते चेहरें जंगल का पूरा आभास दे रहे थे.मैं चाहकर भी वैसा आर्टिस्टिक नहीं चिल्ला सकता था.
किले में कुछ जगह बहुत देर तक रुका,पहले कई बार देखी हुई इमारतें भी उस दिन मेरा अतिरिक्त ध्यान खींच रही थी. बस उन्हें ताकता रहा,मृगवन के ठीक पास एक ऊंचा चबूतरा पहली बार देखा.चतरंग तालाब का पानी एकदम साफ़ था.कुछ पत्थर उछाले,किनारे बैठा,नज़ारा भारी पब्लिक के होने पर भी नीरवता से पूरा हुआ लगा जाने क्यों?,भीमलत तालाब पर शालीनता से नहाते वे मालवा संस्कृति के लोग कितने अनुशासनबद्ध लग रहे थे.बातों में जाना कि वे अतिरिक्त श्रृद्धा भाव से यहाँ हर साल आते हैं.उन्हें और कुछ नहीं मालुम,उनकी जानपहचान केवल और केवल महाराणा प्रताप से ही है.यूं उस दिन बहुत से नए और काम के स्थानों को चिन्हित कर आया कि कभी यहाँ बैठ कविता करेंगे.
इस शौर सपाटे को छोड़ दे तो दिन लगभग वैसा ही था. बस सूरज थोड़ा देर से निकला क्योंकि सर्दी ने शहर को जकड़ रखा था.शहर में चेहरे चिपकाए हाल लगे नए होर्डिंग भी मेरा समय खरच रहे थे.सरकारी स्कूल की नौकरी के चलते छुट्टियों का कल आख़िरी दिन था,मैं भी आम गुरूजी की तरह छुट्टियों आगे बढ़ने का इंतज़ार कर रहा था,मगर अफसोस नहीं बढ़ी,काश सर्दी और तेज़ हो जाती.
vaah !
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