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03 जनवरी, 2012

3-1-2012

आज़कल जीवन में बहुत आराम है.एक अंतराल के बाद ढ़ेर-ढ़ेर छुट्टियां देने वाली सरकारी स्कूल की नौकरी ,अभी तक के लगभग सभी सामाजिक सरोकारों और संगठनों से दायित्व मुक्ति,सचमुच बढ़ा आरामदायक अनुभव है. परिवार की ज़िम्मेदारी के बाद बचा समय नेट,किताबें,पत्रिकाएँ और फिर भी बचा तो मन होते ही लिखने में लग जाता हूँ.अपेक्षाकृत सवार्धिक समय फेसबुक नामक जाल खा जाता है,हाँ लेकिन बड़ा काम का है. कम पैसों में हम सभी से जुड़े रहते हैं.कई आत्मीय जन मुझे फेसबुक ने ही दी हैं. ज्ञान का इतना विस्फोट मैंने कहीं नहीं देखा.

खैर आज सुबह मेरी पसंद की और अब तक आधी पढ़ी किताब का खो जाना खासा परेशान कर गया.किताब भी हमारे वरिष्ठ साथी डॉ. नन्द भारद्वाज का हालिया छपा कविता संग्रह 'आदिम बस्तियों के बीच' था.और ऊपर से पैसे काट कर मंगवाई हुई थी,किताब.फ्री फंट की होती तो ठीक.कुल जामा हम तीन जाने लगे ढूँढने में,मैं,पत्नी नंदिनी और बेटी अनुष्का(बेटी छोटी होकर भी आम बच्चों की तरह अनुकरण के भाव को निभाती है.)

मेरे लिए उनकी कविताओं का आनंद महत्व रख रहा था,वहीं नंदिनी के लिए किताब का मूल्य(अक्सर पत्नियों को ये पत्र-पत्रिकाओं का खर्चा बेमतलब लगता है.)अंत में पता लगा कि किताब मेरी अनुपस्थिति में अनुष्का अपनी नन्ही सहेले-सहेलियों के साथ खेल-खेल में  घर के बाहर मौहल्ले में ले गयी.मैं इस बात से संतुष्ट था कि कविता की  किताब है किसी के क्या काम आएगी?.थक-हार कर दे ही जाएगा,पाने वाला.आखिर में पड़ौस के एक साथी की छत पर पडी मिली.एकदम वैसी ही जैसी मैंने पढ़कर छोडी थी.कोई खरोंच,लकीरें नहीं.सुबह की खोयी किताब शाम होते मिल गयी,वरना नन्द बाबू की कवितायेँ रातभर ठण्ड,कोहरे और ओस में दुबकी रहती.दर्द मुझे भी होता क्योंकि कवितायेँ ही जो लाडली थी.

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