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04 अगस्त, 2013

04-08-2013

'किले में कविता' का  पहला आयोजन बड़ा गज़ब रहा। आयोजन से ठीक पहले बारिश और आयोजन ख़त्म होते-होते बारिश का जबरदस्त दौर। कुल जमा तीस साथी।चाय-केले-नमकीन के बीच पंद्रह विशुद्ध कवि और पंद्रह विशुद्ध श्रोता।पाँच फीकी चाय वाले बाकी मीठी।समय दो घंटे के बजाय तीन घंटे पार कर गया। इसका दुःख सभी को है मगर सबसे ज्यादा राजेश चौधरी जी हुआ होगा ऐसा मेरा पक्का विश्वास है।बतौर नवोदित रचनाकार किरण आचार्य और मुन्ना लाल डाकोत जी को सुना। वे सालों से लिख रहे थे मगर खुले में पहली बार ही पढने आये होंगे।सभी को शुरू में दो-दो कवितायेँ सुनाने की आज़ादी दी बाद में माजरा देख एक-एक का आदेश देना पड़ा। रचनाएं कमोबेश ठीक ही थीं।एक अक्कल को ये आयीं कि फ़िर भी कवि चयन करके कम मात्र में बुलाये जाए और उन्हें ही धाप कर सुना जाए।इससे सहूलियत ये रहती हैं कि प्रगतिशील कविता के बीच ये अलंकारप्रधान महिमा मंडनभरी भाषा नहीं झेलनी पड़े।आतंरिक लय वाली कविताओं के बीच  नारेनुमा कवितायेँ सुनना हमारी मजबूरी ना बने। सत्यनारायण व्यास जी ने अपने सफ़ेद बालों का हवाला देते हुए 'फुरसत नहीं','ईगो' और 'माँ का आँचल' सहित तीन कवितायेँ चपेक दी। खैर उन कविताओं के बगैर गोष्ठी सार्थक और मुक्कमल नहीं हो सकती थी ये मेरा नहीं हम सभी का मत था। और योगेश जी कानवा ने स्त्री विमर्श वाली लम्बी कविता सुनाना शुरू किया तो उनकी कविता की समाप्ति की प्रतीक्षा सभी को थी। रमेश मयंक तो बोल पड़े ''साहेब पूरी तेरह मिनट के आसपास की कविता है। '' कानवा जी की कविता सुनते हुए दिमाग में चिंतन माँगती है। ऐसी कवितायेँ छपे हुए रूप में पढ़ने में अच्छी लगती है। 

जहां आगाज़ रमेश शर्मा जी के दो मीठे गीतों से हुआ वहीं आखिर में शिव मृदुल जी ने शिव वन्दना की।इस बीच कई बार लगा कि गोष्ठी कमजोर रही। सारे कवियों को निपटाने में वक़्त इतना हो गया कि अन्धेरा छा गया। बादलों के बीच सूरज कब अस्त हो गया किसी को रहा।  लगे हाथ कविजनों के ज़रिए लोक रचनाओं सहित देशभक्ति की सरिता भी बही।लोगों ने 'जल चिंतन' से लेकर 'हरियाली' तक को कविता में साझा किया।कविताओं में अतीत का गुणगान और बेटियाँ हर जगह मौजूद दिखीं।कौटिल्य भट्ट नहीं आते तो गज़लें इस गोष्ठी में शामिल होने से रह जाती। लगभग सभी चित्तौड़ नगर के वासी थे मगर एक साथी कपासन से भी नाथूराम पूरबिया करके भे आये। गैर कवि बिरादरी भी आखिर तक जमी रही।कई बार लगा श्रोताओं की छाती को धन्य है जो इतना कर भी झेल गए।समय की कमी के कारण मैंने कविता पाठ नहीं करने का सोच लिया था और तो और कृष्णा सिन्हा को भी ईशारे से मना कर दिया।मगर व्यास जी ने ध्यान रखकर संयोजन मेरे से लेते हुए मुझे बुला ही लिया। 'गुरूघंटाल' शीर्षक से एक ताज़ा कविता सुनायी।कविता सुनते हुए लोगों के दिमाग में कई बाबा-तुम्बा छा गए होंगे ये मेरा विश्वास है। 

कुल मिलाकर मामला जम गया। पत्नी नंदिनी ने नास्ते का जिम्मा बहुत अच्छे से निभाया।उसे यहाँ तो शुक्रिया कहना बनता है। कुछ कवि खुद को परोस कर बहुत खुश नज़र आ रहे थे। बारिश के कारण खुले के बजाय शिव मंदिर के सभामंडप में बैठ हमने संकड़े में भी कविता की ये हमारे जिद्दी होने की हद थी। फोटो ज्यादा ढ़ंग से हो नहीं पाए। बस समझो गेट-टूगेदर हो गया। सब भीग कर घर पहुंचे।तेज बारिश के मारे सभी साथी बड़बड़ करते चले गए होंगे। बारिश की वजह से किसी को निमोनिया हो जाए तो इसकी जिम्मेदारी अपनी माटी की नहीं होगी।शर्तें लागू।वैसे तय किया है अब 'किले में कविता' का आयोजन बारिश में नहीं करेंगे।सुझाव आमंत्रित नहीं है क्योंकि सुझाव और सुभाषित देना सबसे सरल काम है। टेंट वाले के यहाँ से जाजम, फ्लेक्स वाले के यहाँ से बैनर, डिस्पोजल वाले के यहाँ से कागज़ के कप और पानी का केम्पर लाना इतना सुविधाजनक भी  नहीं था। मात्र पाँच सौ की एक नोट में इतनी खुबसूरत आयोजन प्लान किया जा सकता है  सोचा नहीं था। 

समीकरण बड़े गज़ब थे। तीस के जमावड़े में दस महिलाएं थीं। कुछ की पत्नियाँ साथ थी,कुछ के पति साथ थे। कुछ एकदम कंवारे थे। कुछ को कवितायेँ पढ़े बरसों हो गए थे। कुछ गोष्ठी के इंतज़ार में ही बूढ़े हो रहे थे। कुछ एकदम बुजुर्ग थे वक़्त ज्यादा होने और मौसम खराब होने से उनके घर से बाल-बच्चों के फोन आने शुरू हो गए थे। मजाक करने की और इजाज़त दे तो बता दूं कि  कुछ की गुफ्तगू में केले-नमकीन पर विशद चर्चा शामिल थी। कुछ देर तक बाज-दोने और दाल की ही चर्चा करते रहे। बहुत बाद में पता लगा कि  हमारे नए मित्र भगवती बाबू तो अब्दुल ज़ब्बार साहेब की कविता उनके सामने ही पढ़ गए। खैर तेज़ आवाज़ में पढ़ने से रचनाएँ मामला जमा जाती है। आयोजन में बेटी अनुष्का और कृष्णा के बेटे मनन ने जमकर उत्पात मचाया।खैर उत्पात तो कवियों का भी कम नहीं था। कई श्रोता कई बार ऊँचे-नीचे हुए मगर शरमा-शरमी में आखिर तक डटे रहे। युवा मित्र विपुल शुक्ला ने बहुत अच्छे से पढ़ा। दो रचनाएं 'लड़कियाँ' और 'हम मरे' थीं शायद।। बड़ी मारक किस्म कवितायेँ थी बहुत सराही गयीं।वैसे जिसका काम अच्छा हो उसे लोग लगातार देखते हुए पढ़ते हैं। बाकी कई मर्तबा श्रोता एक्की के बहाने निकल लेते हैं। झाँकी ऐसी जमी की जाजम छोटी पड़ गयी। जिनकी कविता सबसे ज्यादा कमजोर थीं (नाम नहीं बताउंगा )वो साथी तो इतने भाव-विभोर हुए कि बोले ''ऐसा आयोजन हर सन्डे होना चाहिए।'' मैंने प्रत्यूत्तर में कहा ''ये मसाणिया राग है जनाब हमें गलत दिशा में चारे मत लगाओ।'' बात उनके मगज में आखिर बैठ गयी। ये वही लोग है जो हर आयोजन के बाद कहते हैं इस आयोजन में हमारे लिए कोई कार्यसेवा हो तो निसंकोच बताना।

कॉलेज शिक्षा से आये विद्वान साथियों में महेश शर्मा जी और डॉ अखिलेश चाष्टा जी का शुक्रिया तो बनता है कि भोले भाव में वे आ तो गए मगर आखिर तक हमें झेलते रहे। अगर भगवान् कहीं है तो ऐसी हिम्मत सभी श्रोताओं में भरें। वैसे कवियों को ऐसी हिम्मत जन्मजात रूप से मिली होती है। हालाँकि हमने ये प्रस्ताव शुरू में पारित कर दिया था कि हर कवि हर कवि को सुने बगैर जा नहीं सकेगा। वैसे जाने वाले मित्रों पर सत्यनारायण जी व्यास की मारक नज़र सेट की हुई थी। यहाँ ये विववरण भी ज़रूरी है कि एक दो मित्रों के गले बड़े अच्छे थे। एक दो मित्रों की कविताएँ।एक दो मित्र बड़ा सजधज के आये थे। एक दो मित्र घूमघाम के बड़ी देर से आये।एक तो वहाँ पहुँच गए जहां का चित्र हमने गोष्ठी के आमंत्रण कार्ड के बेक ग्राउंड सेट किया था। मतलब अच्छा हुआ हमने दिल्ली के लाल किले को बेक ग्राउंड नहीं बनाया।बिलकुल अनजान श्रोताओं के रूप में गोष्ठी में फंस गए स्नेहा शर्मा, पूरण रंगास्वामी और महेंद्र सिंह राजावत सरीखों के अनुभव भी सुनना चाहेंगे कि उन्हें आखिर में क्या अच्छा लगा।वैसे बता दूं कि ये पहला आयोजन होगा जिसमें श्रोताओं और कवियों के घर पहुँचने तक की कुशलक्षेम हमने फोन लगा-लगाके पूछी।इस बदलते दौर में भला इतनी परवाह कौन करता है। 

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