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13 मई, 2018

आकाशवाणी वार्ता;हिंदी की दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य:माणिक




आकाशवाणी वार्ता

हिंदी साहित्य में दलित आत्मकथाओं का योगदान :माणिक


हिंदी साहित्य की हज़ार साल की परम्परा में साहित्यिक रचनाओं के लिहाज से हिंदी ने अपनी सहयोगी भाषाओं, उपभाषाओं और बोलियों के साथ कई उतार चढ़ाव देखे हैं।अमीर खुसरो से लेकर कबीर, मीरा और तुलसी से होते हुए भारतेंदू को छूती हुई ये कड़ियाँ छायावाद और उसके बाद तक आयी है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक की एक समृद्ध श्रृंखला से हम सभी परिचित हैं। कविता, कहानी, उपन्यास और महाकाव्य के साथ ही बाकी भाषाओं की तरह हिंदी में भी कथेतर गद्य साहित्य का बड़ा तेज़ी से विकास हुआ है। बीते सौ सालों में रिपोर्ताज, आत्मकथा, संस्मरण, यात्रावृतांत, रेखाचित्र और व्यंग्य जैसी विधाओं ने बड़ी मजबूती से अपनी ज़मीन का विस्तार किया है। आत्मकथा लेखन इन सभी में जुदा किस्म का लेखन माना जाता है क्योंकि यह यथार्थ के सबसे ज्यादा करीब आंका गया है। यह असल में सृजन या रचना नहीं होकर अपने बीते का सही सही अंकन है। हालांकि इस बात की पूरी गुंजाईश रहती ही है कि कोई भी रचनाकार किस हद तक साफगोई से खुद और अपने आसपास को बयान करता है। भारत में भी आत्मवृत लेखन का एक लंबा और अच्छा इतिहास रहा है। श्यामसुंदर दास की 'मेरी आत्मकहानी' से शुरू हुआ सफ़र बहुत दूर तक चला आया था और आज भी बदस्तूर जारी है। गद्य के साथ कुछ आत्मकथाएं पद्य में भी लिखी गई। बलराज साहनी की 'मेरी फ़िल्मी आत्मकथा' सहित सैंकड़ो आत्मवृत लोकप्रिय हुए हैं


आज की चर्चा हिंदी की दलित आत्मकथाओं पर केन्द्रित है। दलित साहित्य ने वैसे भी हिंदी साहित्य की संवेदना और विषयवस्तु को विस्तार दिया है। आज देश के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में अधिकांश संख्या में दलित साहित्य पर शोध हो रहा है। यह इस बात का प्रमाण है कि दलित साहित्य अपनी स्वीकृति से आगे बढ़ चुका है। यह भोगे हुए यथार्थ और अनुभव की प्रामाणिकता के साथ सामाजिक बदलाव में साहित्य की भूमिका को लेकर चलता है। गौरतलब है कि दलित साहित्य का सबसे मजबूत रचनात्मक अवदान ही आत्मवृत लेखन ही है जो हिंदी के बजाय बहुत पहले से मराठी भाषा में अपनी एक मुक्कमल जगह बना चुका था। दलित आत्मकथा लेखन में पहले मराठी फिर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छे अनुवाद के जारी आया और अब तो मूल रूप से हिंदी में भी जारी है अन्य भाषाओं की तरह ही हिंदी में भी पिछले सौ साल में और खासकर देश की आज़ादी के बाद विभिन्न अस्मितावादी विमर्शों ने अपने आप को साहित्य और समाज के केंद्र में लाया है। सन साठ के बाद का स्त्री विमर्श हो या नवउदारवादी नीतियों के बाद दलित विमर्श, खुली पूंजीवादी लूट के बाद उपजा आदिवासी विमर्श हो या फिर हालातों के मारे पैदा हुआ अल्पसंख्यक विमर्श। अब तो चर्चा में किसान विमर्श और ओबीसी साहित्य विमर्श भी बड़ा स्पेस घेरने लगा है। इन सभी के साहित्य में देश की बहुसंख्यक आबादी दलितों की समस्याएं लगातार महसूसी गई है

हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास में बच्चन सिंह लिखते हैं कि आधुनिक काल में दलितों की दुर्दशा की ओर सर्वप्रथम महात्मा गांधी का ध्यान गया। दलितों के उद्धार हेतु उन्होंने रचनात्मक पहल भी की। कहा जाता है कि 1970 में महाराष्ट्र के दलित पैंथर  नामक पत्र ने 'दलित' शब्द का पहली बार प्रचार किया मगर गांधी के मतानुसार 'दलित' शब्द के पहले प्रयोक्ता स्वामी विवेकानंद थे। गांधी का कहना था कि हमने उनका दमन किया, इसलिए 'दलित' शब्द औचित्यपूर्ण है। इधर दलित साहित्य और आत्मवृत लेखन में कहीं न कहीं अम्बेडकरवादी चिंतन गहरे में मौजूद रहता है जो ज़रूरी भी है। वर्णाश्रम व्यवस्था और ग्राम स्वराज्य की अवधारणाओं के लिहाज से तमाम विरोधाभाषों के बावजूद आज गांधी और अम्बेडकर में से ज़रूरी अच्छाइयों को एक करके दोनों ही महान चिंतकों को साथ लेकर चलने की ज़रूरत ज्यादा है जबकि ऐसा हो नहीं रहा है। दलितों की इतिहासगत स्तिथियों और हालातों के मद्देनज़र एक बड़ा सच इन आत्मकथाओं के माध्यम से दस्तावेज के रूप में सामने आ सका है। भले ही एक ख़ास तबके का प्रतिष्ठित आलोचक वर्ग इस लेखन को अभी भी गंभीरता न लेता हो मगर अब यह विमर्श अपनी अच्छी खासी ज़मीन और पर्याप्त साहित्य रच चुका है। बीते तीन दशकों में दलित विमर्श केन्द्रित सृजन में बहुत बड़ा इज़ाफा हुआ है। कई क्षेत्रों के साथ ही यह अस्मितावादी चेतना खासकर अब उत्तर भारत में अपनी पहचान स्थापित कर चुकी है


मेरा मानना है कि आत्मकथाओं के मूल में खुद की स्थिति को लोकेट करना होता है और अपने आसपास के बर्ताव को ठीक से आंकना ही आत्मवृत लेखन है। सच को सच कहने की ताकत एक आत्मकथा का सबसे ज़रूरी तत्त्व है दलित वर्ग की खुद की कमियों का ठीक-ठीक ब्यौरा देते हुए गैर दलितों के सामाजिक व्यवहार को अंकित करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। तयशुदा कूटनीति के तहत तथ्यों को छिपाना और एक ख़ास प्रतिशोध की नज़र से खुद को अभिव्यक्त करना हमें वंचितों और पिछड़ों के सही समीक्षात्मक आंकलन में उतनी मदद नहीं कर पाता है, जितना आवश्यक है दलित चिन्तक शरण कुमार लिम्बाले की मराठी में लिखित आत्मकथा 'अक्करमाशी' से शुरू हुआ ये सफ़र दया पवार, लक्ष्मण गायकवाड़, नामदेव ढसाल, किशोर शांताबाई काले, बेबी काम्बले जैसे कई समृद्ध और प्रतिबद्ध लेखक-लेखिकाओं की एक लम्बी फेहरिश्त है जिन्होंने बहुत बेबाकी के साथ अपनी आपबीती को कागज़ पर उतारा है


हिंदी में आयी दलित आत्मकथाओं का ब्यौरा शुरू करने से पहले एक बात और बता दूं कि बीते दिनों दलित साहित्य लेखन कौन करे? इस बिन्दु को लेकर बड़ा वाद-विवाद रहा है। शुक्रवार नामक पत्रिका के अंक में उस वक़्त के सम्पादक विष्णु नागर के निर्देशन में इस मुद्दे पर विस्तार से समूह चर्चा भी हुई। दलित लेखन सिर्फ दलित ही करेंगे या दलितों की पीड़ा को समझने और करीब से महसूस करके सहानुभूति रखने वाले गैर दलित भी कर सकेंगे। हालांकि ऐसे विषयों पर संवाद का कभी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता है। फिर भी साहित्यिक क्षेत्र में आयी राजनितिक धड़ेबाजी और वैचारिक खेमों के कारण इस पर आखिर तक राय अलग-अलग ही रही। बहरहाल लेखन दोनों ही वर्गों की तरफ से लगातार जारी है। यह एक बड़ा सच है कि दलित खुद जो अपने साथ बीता लिख सकेगा उस गहराई तक का स्वानुभूत किसी गैर दलित रचनाकार के द्वारा लिखा जाना असंभव ही माना जाए तो बेहतर है। गैर दलित लेखकों द्वारा वंचितों के पक्ष में रचे गए साहित्य की भी लम्बी सूची है जो मुंशी प्रेमचंद से लेकर निराला, अमृतलाल नागर से गुज़रते हुए आज तक बदस्तूर जारी है।उसकी भी यथासमय प्रसंशा की जानी चाहिए इधर हाल में आयी एक पुस्तक 'दलित स्त्रीवाद' की सम्पादक और युवा दलित चिन्तक अनिता भारती ने एक इंटरव्यू में कहा कि दलित स्त्रीवादी लेखन दलित साहित्य की इस स्थापना के एक बिंदु पर सहमत है कि उत्पीड़ित ही उत्पीड़न की प्रामाणिक व्याख्या कर सकता है लेकिन दलित स्त्रीवाद यह भी स्वीकार करता है कि जो भी दलितों के पक्ष में आकर लिखेगा या जो भी जाति के खिलाफ लिखेगा या जाति तोड़ने का काम करेगा वह भी उत्पीड़ितों के लिए लेखन कर सकता है बस उसकी नीयत और समझ साफ़ होनी चाहिए

दलित आत्मकथाओं पर टिप्पणी करते हुए प्रख्यात दलित चिन्तक बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा है कि हिंदी साहित्य में विधाओं का जो विकास है, उसमें आत्मकथा काफी पीछे है। वैसे, एक पारंपरिक और विविधतापूर्ण समाज में इसे सर्वाधिक विकसित होना चाहिए था। आत्मकथा लेखन की संस्कृति के पिछड़ेपन का कारण शायद यही है कि यह विधा जिस न्यूनतम ईमानदारी की मांग करती है, उसे निभाने का साहस यहाँ लगभग अनुपस्थित है, पाखण्ड जहां जीवन शैली का अंग हो, वहां खरेपन की आशा कैसी की जा सकती है? इधर दलित लेखन में सबसे ज्यादा लोकप्रिय आत्मकथा 'जूठन' के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी पुस्तक 'दलित साहित्य:अनुभव, संघर्ष और यथार्थ' में लिखा है कि जूठन के लेखन के दौरान जिस तरह के अनुभव हुए, वे यह सिद्ध करने के लिए काफी हैं कि दलित आत्मकथा लेखकी प्रक्रिया कितनी कष्टदायक है। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को फिर से जीना पड़ता है। उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएं मैंने भोगी है।स्वयं को परत दर परत उधेड़ते हुए कई बार लगा यह सबकुछ कितना दुखदायी है। कुछ लोगों को यह अविश्वनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है

बीते दो दशकों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि हिंदी में दलित आत्मकथाओं के प्रकाशन की एक लम्बी सूची है। मोहनदास नैमिशराय ने 'अपने अपने पिंजरे' शीर्षक से दो भागों में अपना जीवन उकेरा है तब से लेकर इस बीच कई सार्थक रचनाएं आयी है। सूरजपाल  चौहान की लिखी 'तिरस्कृत', प्रोफ़ेसर तुलसीराम की लिखी 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' काफी चर्चित आत्मकथाएं साबित हुई है। महिला लेखिकाओं में कौशल्या बैसंत्री की 'दोहरा अभिशाप' भी दलित स्त्रीवाद को समझने के लिहाज से एक ज़रूरी आत्मकथा है। इस बीच शौराज सिंह बेचैन ने दो आत्मकथाएं लिखी एक 'मेरा बचपन मेरे कन्धों पर' और दूसरी थी 'बेवक्त गुज़र गया माली'। इस सूची में रूपनारायण सोनकर की कृति 'नागफनी', डॉ.धर्मवीर द्वारा रचित 'मेरी पत्नी और भेड़िया' के साथ ही सुशीला टाकभोरे का जीवनवृत 'शिकंजे का दर्द' का जिक्र किए बगैर आगे बढना बेमानी होगा। सभी ने अपने समय का सच लिखकर बाकी समाज की आँखें खोली हैइसमें रत्तीभर भी झूठ नहीं है। बीते बीस साल में इस विधा में प्रकाशित सामग्री ने सबसे ज्यादा तेज़ी से विस्तार पाया है। पाठक लगातार आत्मकथा विधा को पसंद करते हुए पढ़ रहे हैं। इस बीच आपको बताते चलें कि दलित चिन्तक ओमप्रकाश वाल्मीकि के मरणोपरांत उनकी आत्मकथा का दूसरा भाग 'जूठन भाग दो 'भी छप चुका है। कई स्थापित आलोचकों ने पिछली आत्मकथाओं के बजाय तुलसीराम की लिखी मुदर्हिया और मणिकर्णिका की ज्यादा तारीफ़ इस मायने में की है कि तुलसीराम समय के साथ समाज में आए आशाजनक बदलाव को भी पूरी बेबाकी से लिखते हैं। वे अपनी कृति में यह भी स्वीकार करते हैं कि दलितों के प्रति गैर दलितों का अत्याचार अब उतने आक्रोश के साथ मौजूद नहीं है जितना कभी अतीत में रहा है। दलितों ने भी हमेशा अपने अधिकारों के मद्देनज़र समानता के लिए अपना पक्ष मजबूती से रखा है। दलितों ने मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ी है इससे ज्यादा कुछ नहीं। उन्होंने भी यही सुझाया कि शिक्षार्जन और संगठित होकर आगे बढ़कर ही दलित अपना भला कर सकते हैं।उनके इस लिखे को साहित्य जगह में खूब सराहा गया

दलित आत्मकथाओं में स्त्री स्वर का लगातार मुखरित होना अच्छा संकेत है। प्रसिद्द मार्क्श्वादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने एक बातचीत में कहा है कि 'शिकंजे का दर्द' नामक आत्मकथा में जो बयान सुशीला टाकभौरे ने दर्ज करवाए हैं, चकित करते हैं। व्यापक दलित जागरण के हिस्से के रूप में दलित स्त्रियाँ भी जाग्रत हुई हैं, लेकिन उनके जागरण को दलित पुरुष उतना महत्व नहीं देते, जितना अपने जागरण, विरोध, प्रतिरोध आदि को महत्व देते हैं। यहाँ इसे दो अस्मिताओं के नज़रिए से देखा जाना चाहिए;एक दलित अस्मिता और दूसरी स्त्री अस्मिता के सवाल के लिहाज से। सभी आत्मकथाएं हमें दलितों के मुखर होते सवालों से मुखातिब करवाती है और जवाब माँगती हैं

'दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र' नामक कृति में आलोचक डॉ. शरणकुमार लिम्बाले ने साफ़ साफ़ कहा है कि दलित साहित्य को बाकी साहित्यिक मानदंड के अनुसार परखने से आप गच्चा खा जाएंगे। यह एक विशेष प्रकार के यथार्थ को लेकर लिखी गयी कृतियाँ हैं जहां सृजन के बजाय एक सीधा सच है। इन्हें पढ़ने और इनकी आलोचना के मापदंड और मानक एकदम भिन्न होने चाहिए। दलितों के साहित्य का सौंदर्यशास्त्र एकदम भिन्न ही होग। ऐसी अभिव्यक्ति आज तक किसी साहित्य में नहीं हुई। यह अनुभव जाति विशेष के अनुभव हैं। इसलिए यह अनुभव किसी एक व्यक्ति के होते हुए भी पूरी जाति का प्रतिनिधित्व करते महसूस होते हैं। दलित आत्मकथा साहित्य में आया सारा नकार और विद्रोह दलितों के जीवन की कड़वाहट से उपजा है। यह विद्रोह उनके उपर लादी गयी अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध है। इस साहित्य का यथार्थ कुछ भिन्न है। यहाँ भाषा की शुद्धता और शिल्प ढूंढना लगभग बेमानी होगा। यहाँ व्याकरण के नियम लगाना एकदम गैरज़रूरी समझना चाहिए। भले ही इस तरह के आत्मकथा लेखन पर कई आरोप लगे हों मगर यह हमारे ही समय का सच है जो हमें आईना दिखाता है और हमसे उनके शोषित जीवन का हिसाब माँगता है।भले ही दलित आत्मकथा लेकहं में यहाँ एक अजीब आक्रोश है, प्रचार है, एक सरीखा सुर है मगर यह भी एक तथ्य है जिसे नकारना अलोकतांत्रिक हो जाना है

दलित आत्मकथाओं से गुज़रते हुए कई नए सच पाठकों के सामने आते हैं जिनसे आज के दलित समाज को भी बहुत कुछ सीखना होगा। बेबी काम्बले ने मराठी में लिखी अपनी आत्मकथा 'जीवन हमारा' में लिखा है कि दलित समुदाय की कई ऐसी प्रथाएं हैं जो घोर स्त्री विरोधी हैं। ऐसी ही एक खोड़ा प्रथा है।ससुराल में बहुओं पर ढाए जाने वाले जुल्मों में एक यह भी है कि बहु के पाँव में पांच किलो लकड़ी का गट्टा बाँध देते हैं जिसे पहनकर ही काम करना होता है। यह तो कुछ भी नहीं प्रो.तुलसीराम ने अपने परिवार और बचपन के बारे में जिक्र करते हुए जिस तरह से अन्धानुकरण और भयंकर अन्धविश्वासी जीवन का वर्णन किया है पाठकों को चकित करता है। यह बड़ा दुखदायी ही है कि आज भी दलित समुदाय के अधिसंख्य लोग अंधविश्वास की दुनिया में गहरे तक लीन हैं। डायन प्रथा, जादू, टोने-टोटके और बलि देने के तंतर-मंतर आज तक प्रचलित हैं। उस खोह से आज़ाद होना अधिसंख्य दलितों के लिए सपना ही है। जूठन को पढ़ते हुए कई बार लगा कि सामंतवादी मूल्यों के प्रति हमारी आस्था इतने गहरी है कि हम गुलामी की उस पहरन को उतार कर फैंकना ही नहीं चाहते हैं। जातिगत नामों से अपमान के घूँट पीकर बड़ा हुआ ओमप्रकाश वाल्मीकि बचपन से ही ठान लेता है कि शिक्षा और खुद की मेहनत से हासिल सरकारी नौकरी ही मुझे इस पिंजरे से मुक्त कर सकेगी। उनकी लगन ही उन्हें एक दिन इस बदबूदार दुनिया से आज़ादी भी दिलाती है। लम्बे संघर्ष के बावजूद आशाजनक फल मिलने के ढेरों उदाहरण यहाँ इन आत्मकथाओं में मौजूद हैं। जूठन के दूसरे भाग में आप पाएंगे कि देहरादून जैसे बड़े शहर में लेखक ओमप्रकाश को अपने जातिसूचक नाम के कारण कई दिनों तक मकान किराए पर नहीं मिला, यह भी हमारे मध्यमवर्गीय समाज की पोल खोलता है

सूरजपाल चौहान की तिरस्कृत और ओमप्रकाश की जूठन में कई उदाहरण एक से प्रतीत होते हैं। शादी ब्याह के मौके पर भोज के बाद जूठन इकठ्ठे करने से लेकर उसे सुखाकर फाके के दिनों में खाने के कई पीड़ादायक दृश्य हैं जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं। ऐसे दृश्य अब तो लगभग गायब हो गए हैं मगर अब भी कमोबेश रूप से अलग पंगत लगाकार या देरी से भोजन कराने की नई रस्मों से भेदभाव जारी है। कितना भयावह है यह सबकुछ कि जो हमारे दिन रात के सेवक हैं और हमारे लिए ही पर्यावरण को साफ़ रखने के सभी छोटे समझे जाने वाले कार्य बड़ी तन्मयता और जिम्मेदारी से करते हैं मगर फिर भी हमारा उनके प्रति रवैया कितना दोयम दर्जे का है। लगभग सभी दलित आत्मकथा लेखकों के जीवन में पाठशाला में दाखिला एक बड़ा सपना ही रहा। ओमप्रकाश को कई दिनों तक पढ़ाने के बजाय स्कूल बुहारने को कहा गया। जो दलित पढ़ें और कक्षा में अव्वल आने लगे बाकी लोगों की आँख में आने लगे। जाने कैसा समाज था वो जिसे इन रचनाओं में कोई भी पाठक पढ़कर सिहर सकता है। ग्रामीण पृष्ठभूमि में खासकर प्रभुत्वसम्पन्न जातियां इन दलितों से बेगार लेती रही इस मानसिकता के सैंकड़ों किस्से इन आत्मकथाओं में बिखरे पड़े हैं

दलित आत्मकथाओं में समग्र रूप से एक पीड़ा यह भी है कि अपने बचपन के वक़्त के ग्रामीण परिवेश को उकेरते हुए लेखकों ने कई सारे ऐसे भी पक्ष भी रखे हैं जिन्हें लोक संस्कृति के तौर पर बहुत दिल से याद किया है। एक तरह का नोस्टेल्जिया पनपता हुआ महसूसा गया। मुर्दहिया की भूमिका में ही तुलसीराम लिखते हैं कि पचास-साठ साल पहले की जिस मुर्दहिया का वर्णन मैंने किया है, वह पूर्णरूपेण उजड़ चुकी है। सारे जंगल कटकर खेत में बदल चुके हैं, जिसके चलते गिद्दों जैसे अनगिनत पक्षियों तथा साही, सियारों और खरगोशों जैसे पशुओं का विलोप हो चुका है। प्रवासी मजदूरों से जाना कि अब गाँव में आयी एक बड़ी सड़क ने गाँव को तीन जिलों से जोड़ दिया है। अब मजदूरों का पलायन आसान हुआ है। इस तरह ज्यादातर लेखकों के हिस्से में घोर गरीबी, फाकाकशी और खेती-किसानी ही आयी है। पूंजी के एक बड़े हिस्से पर राज करते हुए शोषक जातियों को कोसते हुए ही इनका जीवन बीत गया और उनमें से कुछ दलितों ने मेहनत और लगन से एक मुकाम पा लिया वे ज़रूर इस चक्रव्यूह से बाहर निकालें अनुभव हुए हैं। बाकी का हाल जस का तस ही है ज्यादातर आत्मकथाओं में ऐसे किस्से नदारद हैं जहां इन वंचित और दबे हुए वर्गों के प्रति गैर दलित सहानुभूति के साथ पेश आए हो

जूठन भाग एक की भूमिका में ओमप्रकाश वाल्मीकि के लिखे को सुनकर आपको अचरज होगा, उन्होंने लिखा कि आज़ादी के पांच दशक पूरे होने और आधुनिकता के तमाम आयातित अथवा मौलिक रूपों को भीतर तक आत्मसात कर चुकने के बावजूद आज भी हम कहीं न कहीं सवर्ण और अवर्ण के दायरों में बंटे हुए हैं। सिद्धांतों और किताबी बहसों से बाहर जीवन में हमें आज भी अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिनसे हमारी जाति और वर्णगत असहिष्णुता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। 'जूठन' ऐसे ही उदाहरणों की श्रृंखला है। कुल मिलाकर यथार्थ की इन तस्वीरों में लेखकों के अद्भुत संघर्ष की बू आती है और सभी ने अपने क्षेत्र में बेहतर और कुशल इंसान के रूप में अपने दायित्व निभाए हैं। कोई भी केवल दलित वर्ग में जन्म लेने वाले मात्र से कमतर नहीं लगा। एक तरफ जहां ऑर्डिनेंस फेक्ट्री में वाल्मीकि जी मेधा के सभी कायल थे तो जवाहर लाला नेहरू यूनिवर्सिटी में प्रो. तुलसीराम को बौद्ध दर्शन और रसियन भाषा और साहित्य का जानकार माना जाता रहा है। वहीं डॉ.धर्मवीर केरल कैडर में भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक समर्पित ऑफिसर रहे हैं 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि दलित लेखन के नाम पर अब लगभग दूसरी पीढ़ी अपनी जगह बना रही है। यह कारवां अभी आगे और भी जोर पकड़ेगा ऐसा मेरा मानना है। दलित आत्मकथा लेखन में लगातार नए लेखकों की और खासकर युवा स्वर की भी आमद महसूसी गयी है। ईमानदारी से किए जाने वाला आत्मकथा लेखन हमारे समाज के एक ज़रूरी हिस्से का दर्द और पीड़ा सभी के लिए प्रकाशित फॉर्म में ला पाएगा ऐसी आशा है

माणिक उर्फ़ 'बसेड़ा वाले हिंदी के माड़साब'।
(सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ से अनौपचारिक जुड़ाव। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन।कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोधरत।

प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com)

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