आज की शिक्षा और गिजुभाई बधेका
हम एक ऐसे समय में प्रसिद्द शिक्षाविद गिजुभाई के कृतित्व और व्यक्तित्व की
चर्चा कर रहे हैं जब देशभर में ग्लोबलाइजेशन के प्रभाव से कोई भी अछूता नही है।
शिक्षा के निजीकरण, शिक्षा में विदेशी निवेश और शिक्षा के बाज़ारीकरण जैसे कई
मुद्दों पर बहस जारी है। दर्जनभर शिक्षा आयोगों की सिफारिशों से गुजरने के बाद भी
भारतीय शिक्षा व्यवस्था में वैश्विक स्तर पर चल रही मानक स्थितियों से बड़ा भेद यहाँ
आज भी कायम है। भाषा के लिहाज से हम जहाँ एक तरफ अंग्रेजी के अतिरिक्त मोह के साथ
जी रहे हैं वहीं दूसरी तरफ आज भी मातृभाषा के प्रयोग को लेकर परिवारों में संकोच
व्याप्त है। इस प्रकार स्थितियां बहुत ज्यादा अच्छी नही कही जा सकती है। आज भी
हज़ारों अध्यापक शिक्षक की भूमिका को साइड जॉब की मानिंद लेते हैं। अध्यापन में
मिशनरी भाव धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है। नवाचार करने या ढर्रे से जुदा किस्म का
काम करने में आज भी कई अध्यापक अमूमन भय खाते अनुभव हुए हैं,
तब हमें गिजुभाई याद आते हैं। उनकी प्रासंगिकता आज इसलिए भी
बढ़ जाती है क्योंकि साक्षरता के आंकड़ों में हम आसमान छू रहे हैं मगर असल जीवन में
पढ़े लिखों में घटता हुआ विवेक और रिसती हुई मानवीयता हम पर प्रश्न चिह्न लगाती रही
है। अध्यापकों ने स्वाध्याय छोड़ दिया है, इससे बालकेंद्रित शैक्षणिक नवाचारों की गति मंद सी हो चली
है। इन सभी सवालों के घेरे में खड़े होने पर एक चिंतन करें तो अहसास होगा कि कई परेशानियों
के हल गिजुभाई से होकर गुजरते हैं, यह एक बड़ा सच है।
गिजुभाई के लेखन पर एक नज़र डालें तो आप पाएँगे कि वह सब कुछ दस्तावेजी लेखन की
श्रेणी में आता है। समाज क्या कहेगा? जैसे वाक्यों से एकदम बेपरवाह गिजूभाई अपने समय से बहुत आगे
चल रहे थे। यह बात हम बहुत बाद में समझ पाए। नीरस और जड़वत हो चुके विद्यालयी माहौल
में जान फूंकने वाले उस माहन शिक्षक पर अब तक जितना लिखा और पढ़ा गया है कम लगता
है। शिक्षा के क्ष्रेत्र में काम करने वाले तमाम लोगों के लिये गिजुभाई से गुजरना
तब एकदम जरूरी हो जाता है जब हम एक प्रयोगशील और सतत प्रयत्नशील चिन्तक का मूल भाव
महसूसना चाहते हैं।
गिजुभाई को हमने कई रूपों में देखा और महसूस किया है चाहे वह वकालत हो या बाल
साहित्यकार की भूमिका या कि फिर एक पाठशाला के प्रधानाध्यापक की भूमिका। बच्चों
में देवता के दर्शन करने वाले गिजुभाई को विश्व के कई नामचीन शिक्षाविदों में
स्थान मिला है। यह उनके लगातार किये गए नवाचारों और बने बनाये ढर्रे से जुदा किस्म
की सोच के करण ही संभव हो सका। गिजूभाई की दूरदर्शिता का हमें शुक्रिया करना चाहिए
कि आज भी देश में हजारों शिक्षक और अभिभावक उनके चिंतन को अपनी-अपनी भूमिकाओं के
मार्फ़त पल्लवित कर रहे हैं। उनके द्वारा लिखी गयी दर्जनों किताबों में दिवास्वप्न
एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह पुस्तक 1932 के साल आयी जिसका गुजराती मूल से हिंदी
में अनुवाद कई विद्वानों ने किया मगर काशीनाथ त्रिवेदी का अनुवाद काफी सराहा गया।
काशीनाथ त्रिवेदी खुद महान गांधीवादी चिन्तक और मध्य भारत के पहले शिक्षामंत्री
थे। त्रिवेदी के अनुसार यह पुस्तक काल्पनिक शिक्षक लक्ष्मी लाल की एक शैक्षणिक
कहानी है। इस एक पुस्तक के ज़रिये ही कई ऐसे पाठक हमारे समाज में मौजूद है जो कि
पुस्तक पढ़ने के बाद ही बड़ी तेज़ी से इस व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित हुए और उनके
बाक़ी लिखे को खंगालने लगे। प्रयोग का प्रारम्भ, प्रयोग की प्रगति, छह महीने के अंत में, अंतिम सम्मलेन नामक चार खंडों में लिखी यह पुस्तक अनूठी
साबित हुई है। इसके अलावा भी लगभग उनकी दो सौ पुस्तकें प्रकाशित हुई है। दो दर्ज़न
किताबें तो केवल विद्यार्थी और अभिभावक को ही केंद्र मानकर लिखी गयीं।
जानेमाने शिक्षाविद कृष्ण कुमार दिवास्वप्न के बारे में लिखते हैं कि इस
पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते मन बेरंग, धूल धूसरित प्राथमिक शालाओं की उदासी को भेदकर उल्लास और
जिज्ञासा की झलक में बह जाता है। उस समय का चित्र बनाने में लग जाता है जब देश के
लाखों स्कूलों में कैद पड़ी प्रतिभा बह निकलेगी और बच्चे अपने शिक्षक के साथ स्कूल
के गिर्द फैली दुनिया का जायजा आनंदपूर्वक कक्षा में बैठकर ले सकेंगे।
इनकी बहुतेरी किताबों के अनुवाद लगातार आने लगे और इसी बीच राजस्थान सरकार के
शिक्षा विभाग की शिविरा पत्रिका के सम्पादकीय सहकर्मी रामनरेश सोनी ने भी कुछ
पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया। इनकी अन्य किताबों में चालणगाड़ी,
मोटीबेन, भेरू, सुन्दर पाठ, हालतां-चालतां, कठिन है माता-पिता बनना, माता-पिता: अपेक्षाएं और प्रश्न,
माता-पिताओं की माथापच्ची, शिक्षक हों तो, मोंटेसरी पद्धति, कथा-कहानी का शास्त्र, प्राथमिक विद्यालय में कला कारीगरी की शिक्षा,
बाल शिक्षण: जैसा मैं समझ पाया,
प्राथमिक विद्यालय:भाषा-शिक्षण और चिट्ठी वाचन जैसे कई
शीर्षक हैं। गिजुभाई ने कहानियों के साथ ही कविताएँ भी लिखी। एक बानगी.....
कविता का शीर्षक है
जवाब दीजिए
मैं खेलूँ कहाँ
मैं कुदूं कहाँ
मैं गाऊँ कहाँ
मैं किसके साथ बात करूं
बोलता हूँ तो माँ को बुरा लगता है
खेलता हूँ तो पिताजी खीझते हैं
कूदता हूँ तो बैठ जाने को कहते हैं
गाता हूँ तो चुप रहने को कहते हैं
अब आप कहिए कि मैं कहाँ जाऊं क्या करूं?
इस भाव की दसों रचनाएं उनके खजाने में मिल जाएँगी। उनकी एक और पुस्तक है बाल
दर्शन जिसमें उनके विचार और अभिव्यक्त वाक्यांश संकलित है। उनका लिखा एक-एक विचार
प्रेरक और शिक्षाप्रद है। गौरतलब है कि गिजुभाई पर असंख्य शोध हो चुके हैं।
उन्होंने अपने जीवन काल में कई पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया जैसे मुच्छाली माँ,
शिक्षण पत्रिका दो मुख्य नाम है। वे पढ़ने में तेजस्वी,
दृढ़ निश्चयी, साहसी थे। वैवाहिक जीवन में कई मुसीबतें आयी। पहली पत्नी की
अकाल मृत्यु और फिर दूजा विवाह, असमय माँ का देहांत और गिरस्ती धर्म का निर्वाहन, बहुत
मुश्किल घड़ियाँ थीं, मगर वे अडिग रहे। वे एक जगह कहते हैं कि बालकों ने मुझे
प्रेम देकर नया किया और मुझे नयी ज़िंदगी दी। बच्चों को सिखाने में सच पूछें तो मैं
ही सीखा।
आंकड़ों की बात करें तो गिजुभाई का जन्म 15 नवम्बर 1885 को हुआ था। पूरा नाम था
गिरिजाशंकर भगवान् जी बधेका। इनके मुरीद इन्हें मूछों वाली माँ या मूंछाई माँ के
नाम से पुकारते थे। अपने समय के यह पहले शिक्षक थे जिन्होंने अपनी पाठशाला में
अछूतों को प्रवेश देकर लीक से हटकर काम किया था। गिजूभाई का मानना था कि केवल अक्षरीकरण
शिक्षा नही है बल्कि वह जीवन और राष्ट्र के लिये एक बेहतर नागरिक तैयार करने की
प्रणाली है। किसी देश का भविष्य उसकी पाठशाला में आकार लेता है। इस मान्यता को
आधार माने तो हमें बच्चों के लिये ज्यादा संवेदनशील होना होगा। बाल मनोविज्ञान के
कई नए पाठ देने वाले गिजुभाई ने भी हमारे समाज के लिए महात्मा गाँधी की तरह ही एक
सार्थक जीवन जिया। यह इत्तेफाक ही था कि वे दोनों गुजराती थे,
दोनों ही दक्षिण अफ्रीका गए, दोनों ने ही वकालत सीखी और अंतोगत्वा अल्प समय की वकालात के
बाद दोनों का मन इस व्यवसाय से उचट गया।
गिजुभाई अपने कृतित्व में जीवनभर सदैव सतर्क अध्यापक की तरह पेश आए। वे बाल
साहित्य में प्रकाशित हो रहे सृजन को लेकर भी पर्याप्त सावचेत और गंभीर थे। उनके
अनुसार बाल साहित्य न केवल मनोरंजन करता हो बल्कि वह बालकों में आनंद भरे,
उनके शरीर और मन को आगे बढ़ने का पोषण भी प्रदान करें।
अभिभावकों को चाहिए कि वे यथासमय अपने बच्चों को बाल-साहित्य उपलब्ध करवाते रहें।
एक ही मोहल्ले में रहने वाले साधारण परिवार अलग-अलग पुस्तकें खरीदें और आपस में
लेनदेन करके किताबें पढ़ें। केवल पत्रिकाएँ खरीदकर देना ही काफी नहीं है उन्हें
बच्चों के साथ बैठकर पढ़ते हुए आस्वादन करना भी उतना ही ज़रूरी है। तभी यह सबकुछ
सार्थक होगा। एक दूजे मुद्दे पर गिजुभाई कहते हैं कि बच्चों को दिया जाने वाला
गृहकार्य भी एक तरह का त्रास ही है। गृहकार्य करने की मजबूरी उससे कई अद्भुत क्षण
और आनंद के पल छीन लेती है। डर घेरे रहता है। विद्यार्थी भय में जीता है। हमें
गृहकार्य रहित विद्यार्थी जीवन की कल्पना करनी होगी।
गिजुभाई अक्सर अपने बालकों के माता-पिता को चिट्ठियाँ लिखकर उनसे संवाद किया
करते थे। बच्चों द्वारा घर पर मारने-पीटने की शिकायत पर गिजुभाई बक़ायदा ख़त लिखकर
नाराजगी व्यक्त करते थे। अभिभावक ऐसी स्थिति में शरमा जाते थे। गिजुभाई खुद के
प्रति एकदम बेपरवाह आदमी थे इसलिए उनके यार दोस्त उन्हें औलिया कहा करते थे।
बीमारी में भी बाल मंदिर जाने की उनकी ज़िद जगप्रसिद्ध थी। वे अपने पूरे जीवन काल
में कई विद्वानों से खासे आकर्षित थे जैसे काका कालेलकर,
अँगरेज़ जॉन लॉक, फ्रांसीसी विद्वान कोंडिलेक, शिक्षाविद रुसो, पेस्टालोजी, फ्राबेल, मोंटेसरी और टॉलस्टॉय उनमें से कुछ नाम है।
मोंटेसरी से ही प्रेरणा पाकर उन्होंने उनसे भी आगे की सोच के साथ बालनाटक,
बालकथा, लोकगीत, लोककथा और कथा संग्रह पर ध्यान दिया। उनके अनुसार तो विद्यालय सृजन शक्ति के कत्लखाने बन
गए हैं और घर में हम बच्चों की अभिव्यक्ति का दम घोंटने में लगे हुए हैं। वे एक
जगह कहते हैं कि आधा मन उपदेश की बजाय छटांकभर आचरण कहीं ज्यादा अच्छा। ऐसी कहावत
को चरितार्थ करना चाहिए। बालमंदिर में उनकी दिनचर्या और उनका आचरण अपने आप में
अद्भुत आदर्श है। खासकर बाल मंदिर का रविवारीय रंगमंच अपनी अलग ही छाप छोड़ता है।
उनके स्कूल में खेले गए कई नाटक बहुप्रसिद्ध है जैसे सात पूंछड़ियो उंदर,
मियाँ फुसकी, दला तरवाड़ी आदि।
काका कालेलकर ने गिजुभाई को श्रृद्धांजलि देते हुए लिखा था कि इस युग में
गिजुभाई और ताराबेन मोडक ने जो काम किए हैं उन पर कोई भी समाज गर्व का अनुभव कर
सकता है। बालकों के उद्धारकर्ता गिजूभाई ने असंख्य माता-पिता को बाल स्वातंत्र्य,
बालभक्ति तथा बालपूजा की दीक्षा प्रदान की। गिजूभाई के जीवन
काल में कई सपने ऐसे भी थे जो उनके रहते पूरे न हो सके। आधे-अधूरे सपनों में एक था
बाल विद्यापीठ यानी चिल्ड्रन यूनिवर्सिटी की स्थापना और दूसरा बाल इनसाइक्लोपीडिया
या बाल ज्ञानकोष का निर्माण। उनका सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श जीवन साबित हुआ। वे एक आदर्श
पिता,
उत्तम शिक्षक और सहकर्मियों के लिए प्रेरणाश्रोत रहे। हमें
जानकारी होनी चाहिए कि वे अफ्रिका प्रवास से पहले विनायक उपनाम से कविताएँ भी लिखा
करते थे। न केवल उन्होंने खुद लिखा बल्कि अपने संगी-साथियों को प्रेरित कर उनसे भी
लिखवाया।
माणिक उर्फ़ 'बसेड़ा वाले हिंदी के माड़साब'।
सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ से अनौपचारिक जुड़ाव। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन।कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोधरत।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
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