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05 जनवरी, 2012

05-01-12

दिनभर के चार-पांच दृश्य...बिलकुल जुदा-जुदा...सुबह डाकघर गया...बरसों बाद मनीआर्डर किया..चार-पांच बार कोलम पूछते हुए शुद्ध हिंदी सना आवेदन भरा.जोधपुर वाले रमाकांत जी को 'प्रतिश्रुति' व 'कृति और के लिए सदस्यता भेजना तय कर राशि भेजी.ओनलाईन बैंकिंग के ज़माने में भी इस तरह का लेनदेन अपने हस्तलेखन को  किसी अपने की आँखों तक पहोंचाना सुकूनभरा होता है.जो कई बार एक गहरी भावना की अनुभूति के छिपे होने की बात करता नज़र आता है.ये गुण आज भी हिंदी लेखकों की पोस्टकार्ड लेखन आदत में पूरी तरह समाहित है.उसी डाकघर में वहीं आज युवा उम्र के (शायद नवनियुक्त) साथियों को डाकघर में पर्याप्त फुर्ती के साथ और ग्राहकों के प्रति सदाशयता के साथ काम करते देख युवा पीढी के प्रति मुझे अपने ही विचार फिर बदलने पड़े.

दूजा दृश्य....बहिन के ससुराल वालों के घर का नया नवेला हाल ज़मा कराया बिल घुम जाने पर डुप्लीकेट कोपी बनवाने सरकारी ऑफिस कल्चर से भेंट हुई.परिपाटियों और मुहावरों के विपरीत निचले तबके के बाबू लोगों ने पूरा सहयोग दिया और एक खुशट अधिकारी शुरू से आखिर तक अपने सरकारी टाईप मति चलाते हुए बेतरतीबी से पेश आया.शायद उसे कभी उपभोक्ता नामक किरदार निभाने का पाला नहीं पड़ा या कि फिर घर से लड़झगड़ कर निकला हो.अँधेरे घुप्प कमरे में बैठा होने से मुझे उन जनाब की शक्ल याद नहीं रही,गालियाँ दे भी किस तो चेहरे को.

तीजा दृश्य......शाम के समय हमेशा की तरह पत्नी के तीन बार कहने पर दीया-बत्ती करने लगा.भगवान् वाले आलिए में सात-आठ (संख्या का पक्का मालुम नहीं )भगवान् बिठा रखे है....दीया बत्ती करते वक्त मैंने कंप्यूटर में चलते आबिदा परवीन के गीत 'छाप तिलक सब छिनी' की आवाज़ और तेज़ कर दी.पूरे पूजा-पाठ के बीच आँखों में अमीर खुसरो,कानों में आबिदा और हाथों में घी-रुई के फोहे के साथ ससुराल से ख़रीदे दो पीतल के दीए थे.कुल ज़मा मन कहाँ और तन कहाँ की बात है.आधा आस्तिक हूँ पत्नी के संग में रहते हुए.......और दूजी बात ये कि लगभग नास्तिक हूँ....अपने लेखन-पठन से......

वरिष्ठ साथी डॉ. नन्द भारद्वाज का हाल छपा कविता संग्रह 'आदिम बस्तियों के बीच ' की सभी कविताएँ पिछले तीन दिन में पढ़ते हुए निगल गया.इतना समय भी नहीं लगता मगर क्या करूँ,गृहस्थ जो ठहरा.संस्यासी होता तो अब तक तो उसी किताब की समालोचना में दस -बारह कवितायेँ गड़प देता और समीक्षा लिख भेजता.संग्रह की पूरी की पूरी अड़तीस कवितायेँ अवेरकर पढ़ने-पढ़ाने लायक है.दोपहर की डाक में एक आवरण सहित पत्रिका मिली, लिफ़ाफ़े को किनारे से कतरने पर जाना कि भोपालिया अग्रज संस्कृतिकर्मी साथी विनय उपाध्याय ने मुझ पर भरोसा कायम रखते हुए 'रंग सम्वाद' जैसी ज्ञानवर्धक और आकर्षक पत्रिका का संयुक्तांक भेजा.पन्ने पलटने मात्र से ही सप्ताहभर के विचार मंथन का जुगाड़ जम गया हो मानो ऐसे ही अनुभव हुआ.शाम होते होते बोधि प्रकाशन  से छपी 'स्त्री होकर सवाल करती हो' की जयपुर से रवानगी की सूचना मिली.यहीं शहर में हर तरह के दृश्यों के बीच मैंने अपने जीवन के भिन्न-भिन्न  मतलब निकलते देखें. और इस तरह एक और दिन बीत गया

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