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30 दिसंबर, 2011

30-12-11

साल का लगभग आखिर है.टी.वी. पर रवीश कुमार की बहस चल रही है,प्राईम टाईम है, जो सीधे कानों में घुस रही है.आँखें कभी की.बोर्ड पर अक्षर ढूँढती व्यस्त है या कि फिर कभी कम्यूटर की स्क्रीन पर उघड़े हुए अक्षरों की स्पेलिंग चेक करती हैं.यहाँ भी जीवन का असमंजस जैसा मूल गुण इतनी सरदी में भी कायम है.सब काम एक साथ इर्द-गिर्द हैं.पूरा गरम कपड़ों में ठूंसा होकर भी धूज रहा हूँ.चित्तौड़ और इसकी सर्दी दोनों वल्लाह है.नए साल को लेकर कुछ नहीं सोचा है.भेड़चाल की तरह किसी डिस्को-डांस पार्टी में नहीं जा रहा हूँ.आम भारतीय की तरह उठूंगा,खाउंगा,सोऊँगा,भागूंगा.वही रोज़मर्रा की रेलमपेल.

बहुत काम बाकी है,मालुम है अगले बारह महीने भी मेरे साथ दगा करेंगे.एक बात पक्की है कि एक काम पूरा होते होते दूजा आ धमकेगा,आराम अगले साल भी नहीं मिलेगा.इधर अपनी झोले में रूचिया भी हमने ढेरों अवेर रखी है .मिलने वालों से दस विषय पर एक साथ बात करते हैं.पूरा का पूरा घालमेल.ये तारतम्यता बिठाने की कमजोरी है या ज्ञान का विस्फोट,इसका प्रत्यूत्तर तो सहन करने वाला ही बता सकता है,बशर्ते कि वो भी हिम्मतधारी हो.सोच रहा हूँ इस गुज़रते साल में गाँव हो आऊँ.अगले साल में कविता संग्रह छप जाए बस यही कामना है.मन ये भी है कि जीवन में अच्छी किताबे पढ़ने को मिले.बेहतर मित्र मिले.

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