Loading...
17 फ़रवरी, 2012

दरारों के दौर में

दरारों के दौर में

देख रहा हूँ मैं इस
दरारों के दौर में भी
आज अखंड खड़ी  हैं
वो इमारतें किले की


अकेली लगती है रात के
अँधेरे में इशारों से
अपनों को बुलाती हुई
वो इमारतें किले की

न बोलती न चालती
ठेलते हुए बुढापा खुद
अकेले ही जीती ओ जागती
वो इमारतें किले की


बीता समय समेटकर
रखती हैं ज्यों के त्यों
तथ्य सारे बांटती ओ बखानती
वो इमारतें किले की

गुज़रा वक्त कुछ हद
ढाबती,संभालती वो
दिन-रात महमानती
वो इमारतें किले की

गुज़रे ज़माने राजती थी
वैसी न अब वो गाजती
चुपचाप ही बस श्वांसती
वो इमारतें किले की

सब जानती ओ सोचती
सब मन की आशा पूरती
न टोंकती न रोकती
वो इमारतें किले की

दिनभर नुमाईशती खुद को
रातों ही बस वो आरामती
यूं रोवती और हांसती
वो इमारतें किले की

अपने पैरों खड़ी हुई हैं
करमों को सबके जानके
निगलती ओ चुपचापती
वो इमारतें किले की

शोषक-पोषक सब भानती
पथरीली हैं मगर दिल सहित
येनकेन जीवन जुगाड़ती
वो इमारतें किले की

1 comments:

 
TOP