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साथ छोड़ चले
तमाम बातूनी सहयात्री
भरोसा तोड़ते हुए
अनायास
कि अब
रास्ता आगे का
हो चला है
बहुत आवाज़दार
भीतर ही भीतर
फूटते कोलाहल की तरह
सहन करने की हद तक
परीक्षा लेता हुआ
फिर भी
जिद नहीं छूटती
इस परेशान मुसाफिर की
जो
एकांत तक पहूंचने की
जुस्तजू में
झेल रहा है दोहरी मार
अकेला-अकेला
कठीन डगर का
आँखों में तैरती है आज भी
अधरझूल में शुरू किये
सफ़र की दिलेरी
और जब मंझिल पर हूँ
तो
तसल्ली में लिपटी
रात है एक हाथ
और
बीते दिनों की धूप का असल
अहसास है
दूजे हाथ में
(3)
समझती है
कहाँ ये
नादान गिलहरियाँ
दुकानदारी करते बाज़ार
की इशारेबाजी
यूं
एक अफसोस
हमेशा टहलता है
मन के आसपास
वे
बार-बार आ जाती
सड़क के बीचों बीच
मरते-मरते
बच जाती
फिर कभी
सहसा मिलने को
न्योत जाती
वे
केवल फुदकना और उचकना
जानती है
या फिर
एक ओर ठहर
पीछे मुड़कर
घबराती नज़रों से थोड़ा सा मुस्कराना
जानती है
किनारे से सचेत हो
ताकना
राह की आवाजाही
भोली,बेखबर,अनजान
आदमखोर ज़माने
की टेड़ी नज़र
कहाँ पहचानती है
ये गिलहरियाँ
बनावट की बोली के-से ज़हर को
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