(खासकर हमारे अज़ीज़ और आवाज़ के जादूगर प्रकाश खत्री जी के लिए)
कहाँ फंस गया
कविता का शीर्षक
कहाँ फंस गया
कविता का शीर्षक
अटक तो नहीं गया
कहीं दांतों के बीच
या फिर छिप गया
चेहरा दिखाकर
सकुचाता हुआ
फिर रूप बदल कर
आने की कह गया हो मानो
मालुम है
जा नहीं सकेगा
ये भाव मेरे मन का
जो आया था अभी-अभी
कविता की शक्ल में
कुछ देर बैठ पास
खिसक लिया अचानक
लंगोटिए यार की तरह
बिना बताये
ढूंढ ही लेंगे उस कविता को
आखिर कहाँ जायेगी
मेरी चंगुल से
बचकर
जब तक आँखों में समाया है
हरियाला जहां
और मेरा मन पाक-साफ़ है
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