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25 मार्च, 2012

25-03-2012

लम्बे समय बाद अपने गाँव अरनोदा.वही रास्ता हमेशा की तरह पीछे छूटता हुआ शहर चित्तौड़ .दोनों तरफ लगभग वही पेड़,मगर मन में उपजे भाव और समानांतर विचार हमेशा अलग.अफीम की फसल लूरने चीरने का काम पूरा,गेंहू काटते लोग खड़े मिले खेतों में.कुछ पछेती फसल की अफीम लूरते हुए.यहाँ से मेरे गाँव जाते समय रास्ते पड़ते गाँव में  चित्तौड़ी, चित्तौड़ीखेड़ा तक तो चित्तौड़ का ही हिस्सा लगता है. फिर खरड़ी बावड़ी,घटियावाली,गिलुण्ड,भाटियों का खेड़ा,मुहम्मदपुरा.यहाँ तक पक्का रोड है.आगे सात किलो मीटर कच्चा है.जहां बीच में फुटवाड़ ,माताजी की झुपडियाँ आती है फिर अरनोदा.

गाँव लगभग सारे एक से.वहाँ बसे माँ-पिताजी लगभग एक से.उनके शहर जा बसे बेटे-बहू लगभग सब एक से.मोबाईल और टी.वी के प्रभाव सभी जगह उतनी ही धार के साथ असरदार.पैसे कमाने की व्यस्तता उतनी ही व्यावसायिक गाँव में भी.किसी को फुरसत नहीं है गाँव में भी.कोई रास्ते चलते जे-राम जी की नहीं करता है गाँव में.मेरी तरह मेरा गाँव भी बहुत हद तक बदल चुका है.पहचान के लोग भी बाजु से चुपचाप निकलने लगे हैं.पैसों का जोर वहाँ भी सर चढ़कर बोलता है.पडौस के मायने लगभग बदल चुके है.प्रतिमान अब वैसे नहीं रहे जैसे तुम यहाँ शहर में जीते हुए वहाँ के बारे में घड़  रहे हो.पक्के विश्वास के लिए किसी सन्डे मेरे साथ उसी सत्ताईस किलो मीटर की यात्रा में मेरे साथ हो लेना,जिसे में पैंतालीस मिनट में तय करता हूँ.वो भी नामचीन हिन्दी फ़िल्मी गीतों के गायकों को सुनते हुए.

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