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17 जुलाई, 2012

17-06-2012

ढंग का आदमी नहीं मिलने की स्थिति में मुझ जैसे बेढंग के आदमी को फिर से स्पिक मैके चित्तौड़ का सचिव बना दिया। फिर का मतलब मैं साल दो हज़ार दो में ये काम संभाल चुका हूँ तब ॐ स्वरुप सक्सेना जैसे नियमबाज आदमी अध्यक्ष हुआ करते थे। बहुत से मामलों में लकीर के फकीर। बहुत बेबाकी थी उनमें। आज भी है। उम्र के एक पड़ाव पर आकर बहुत से बड़े बेबाक ठंडे पड़  जाते हैं। मगर उनकी ज़बान और लहजा आज भी वैसा ही है। मगर दिल बहुत साफ़ सुथरा है। सालाना रूप से ही उनसे मिलना हो पाता है। स्पिक मैके की बारहखड़ी मैंने उनसे ही सीखी। हालांकि प्रवेश मुझे हरीश खत्री भैया ने बिना कान पकड़े ,बिना फीस जमा कराये ही दिला दिया था। दूसरे साल में डॉ.ए .एल. जैन साहेब के साथ ही फिर सचिव रहा। इस बार दस साल बाद फिर उन्ही जैन साहेब के साथ काम करने का मौक़ा आया है।एक बात कहना चाहता हूँ कि बड़े लोगों से अब इतना डर नहीं लगता जितना दस साल पहले लगता था। इन दस सालों में मैंने अपनी जान लगा कर स्पिक मैके  के सभी पायदान चढ़े उन्हें सींचा। साईकिल चलाने की हद तक गया। पोस्टर चिपकाने, सेठों के सामने रिरियाने, कलाकारों के नखरों के आगे पोछे लगाने , हाथा जोड़ी करने,सर्दी और गर्मी में तन जाने के तमाम मामले एक रील की तरह सामने आ जाते हैं।

मगर अब मैं ,कलाकार,सेठ,स्कूल और ये युवा पीढ़ी बहुत हद तक बदल चुकी है। कई मायनों में मैं भी उतना ढंग का नहीं रहा। हाल के सुरतकल राष्ट्रीय अधिवेशन ने मुझमें कुछ नई ऊर्जा जैसा कुछ भर दिया। आशावादी बनाया। तभी से हमारे हरीश लड्ढा भैया के साथ कुछ करने का मन बनाया है। मन होगा तब तक करेंगे। सब मन का मामला हो गया है। इसी बीच हमारे मन पर भी आम दम्पतियों की तरह हमारी अर्धांगिनी के मन के निर्णय भी हावी रहते हैं। व्यस्त होने को कई झुमले आ पड़े हैं। अब तो सरकारी मास्टर की नौकरी भी है। आंशिक मानदेय वाली आकाशवाणी की एंकरिंग भी लुभाती है। घर के बहुत विलग से काम भी हमारे हिस्से में तय हुए हैं। मसलन आटे का डिब्बा डालना, गैस की टंकी लाना, दूध लाना, सुबह की चाय बनाना, महीने में पांच दिन पीने पानी भरना, बेटी के स्कूल की फीस जमा कराना, उसकी किताबों के पुस्टे चढ़ाना, टांड  पर सामान सरकाना फिर ज़रूरत के मुताबिक़ उन्हें उतारना भी, इन्ही सभी काम की लिस्टों के बीच ये मेरी नई पारी शुरू हुयी है।

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