आज सुबह पहली बार ही कथाकार सूरज प्रकाश जी से बात हुयी।जिस आत्मीयता से बात हुयी लगता है किताबों की दुनिया हमें कितना कुछ संवेदनशील बनाती है आज फिर अनुभव हुआ।वे 'मित्र' 'मित्र' कहते रहे और मैं 'सर' 'सर'।एक अदब और एक पुरानेपन के साथ अत्यल्प समय की ये बातचीत भी मुझे उनसे हुयी 'संगत' की तरह याद रहेगी।बातों में पता लगा कि वे कभी चित्तौड़ नहीं आ पाए। आने का एक वादा किया है।
वे बातों में कहते हैं
''किताबों की पाठकीयता को लेकर कोई क्रान्ति होनी चाहिए।किताबों के पठन को लेकर हमारी मानसिकता में ही खोट है।असल में दूजे संस्कारों की तरह पढ़ने का भी संस्कार पैदा करना पड़ेगा।बड़ा दर्द होता है जब ऊपर से 'पाठक' की शक्ल वाले साथी किताबें दबा के बैठ जाते हैं।न पढ़ते हैं न पढने को दूजों तक पहुंचाते हैं।
वे बातों में कहते हैं
''किताबों की पाठकीयता को लेकर कोई क्रान्ति होनी चाहिए।किताबों के पठन को लेकर हमारी मानसिकता में ही खोट है।असल में दूजे संस्कारों की तरह पढ़ने का भी संस्कार पैदा करना पड़ेगा।बड़ा दर्द होता है जब ऊपर से 'पाठक' की शक्ल वाले साथी किताबें दबा के बैठ जाते हैं।न पढ़ते हैं न पढने को दूजों तक पहुंचाते हैं।
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