Loading...
10 जनवरी, 2013

कविता-पहले से मालुम था

Photo by http://mukeshsharmamumbai.blogspot.in/
पहले से मालुम था 

पहले से मालुम था
इन आकाओं की शक्लों वाले
सूरज के हिलने-डुलने से
बारामदे में बची ठंडक
डगमगा जाएगी
हमारे हित न ठहरेगी पलभर

कोई आशा नहीं रही बाकी कि
अंतर्द्वंद के बीच
जीवन की ये ठंडक
धूप के बरगलाने में
नहीं आएगी

बनी रहेगी
आफते
अपने प्रहारों के साथ
आँगन में
एक अविश्वास की तरह

हाँ
हवा-अंधड़ अब
ज़रूर गिराएंगे
आँगन के नीम की बुढ़ाती पत्तियाँ
इतराती रही
जो आँगन में
गुडिया की तरह
अब
उदास हो जायगी

हमारे पक्ष में
गवाही कहाँ देते हैं
विकट दौर में गूंगे बनते हैं
हमारे ही दोस्त
ये रिश्ते अभिशाप बन जायेंगे
अब कोई अचरज नहीं लगता

पहले से मालुम था
दुपहरें जलाएगी पाँव
बहती हवाएं
कतरेगी छांव हमारे
हिस्से की
उड़ा देगी सारी पत्तियाँ
अपनेपन की

संभाल कर रखी थी
यादें हमने
जो अब तक आँगन में
अपने पूरे आवेग सहित
प्रहार करेगी हम पर

पहले से मालुम था
दोस्त बिदक जाएंगे
ऐनवक्त
हिस्से में कम आएगा हमारे
पांतियाँ गलत-सलत होगी
कई सारे दुश्मन होंगे
हमारे
मालुम था पहले से

इस बारी भी
छिना झपटी में
हम ही लूटे जाएंगे भरसक
षडयंत्र तमाम रचे जाएंगे
हमारे ही प्रतिरोध में इस बारी
पहले से मालुम था

मालुम था पहले से
हम ही मारे जाएंगे
दंगों में फिर इस बार
बिना वज़ह

पूल टूटने से
नदी में गिरी बस में
हमारी ही जात के
लोग होंगे सवार
वहाँ भी
नहीं बचेगा कोई उनमें से

लाख ईलाजिया
ढकोंसलों के बाद भी
हमें ही रोना है

अपना रोना
मालुम था पहले से



*माणिक *




 
TOP