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21 जनवरी, 2013

कुछ नयी कवितायेँ-18 (आदिवासी विषयक 1-6)

Photo by http://mukeshsharmamumbai.blogspot.in/
आदिवासी-1

बेफिक्र दिखते हैं
वे तमाम चिंतित लोग
14 से 24 की उम्र के
झुंडों में घपियाते

वे ढूंढ  ही लेंगे
नदी,तालाब
या
सड़क किनारे एक हेंडपंप

जिनकी प्राथमिकता में है
निर्माणाधीन एक मकान
या फिर
तीन दिवारी लावारिश बाड़ा

उनका काम चल ही जाएगा
बाथभर (बाहों में समाये इतनी ) लकड़ियों से
जल जाएगा
तीन पत्थरों पर टिका अस्थायी चूल्हा

पर्याप्त है एक दिन में
एक केन पानी, आधा किलो आटा
पाँव सब्जी,थड़ी की चाय
बीड़ी बण्डल,चूना-तम्बाकू
मिस कॉल का बेलेंस
और शाम तक की मजूरी

आदिवासी-2

ये वही हैं
परमार,पारगी और चरपोटा
कुछ और भी गोया
खाट,खराड़ी और मईड़ा
जैसी गोत्र के हैं सभी
दिखते हैं मगर एक सी मजबूरी के मारे

भरपूर ईमान और मेहनत की
जिनसे आती है खुश्बू
कमोबेश अब भी
पीपलखूंट-परतापुर सरीखे
गांवों का आदिम अंदाज
बचा है इनके जीवन में

ये वही हैं
जो प्रतापगढ़-बाँसवाड़ा-डूंगरपुर
जाती सड़क किनारे
चलते हैं सानुशासित
ये वही हैं

आदिवासी-3

कल तक तो थे इनके हिस्से
नदी,पहाड़ और जंगल
एकछत्र राज़ था इनका
जाने कौन कर गया सौदा रात में
अकूत संपदा बेच गया
चुपके से जाने कौन ?

कौन थे वे लोग जो
अन्धेरा रख छोड़ झोंपड़ों में
इनके हिस्से के सूरज,चाँद
ले गए कहीं और उजाले सहित

वे कौन ढीठ और अपढ़ लोग हैं
जो फलांग कर
बढ़ जाते हैं आगे अब भी
बिना गिने  इन बिचारों को


आदिवासी-4

ये इसी धरती के वाशिंदे हैं
विश्वास करो तनिक
इनके मन में भी है
किसी मुक्कमल जीवन की कोई सलोनी तस्वीर

इन्हें भी पसंद है
तितली और मोगरे के फूल
हाड़ी-लुगड़े से लेकर जींस-टी शर्ट तक का सफ़र
तय करना चाहते हैं ये भी

तीज-त्योंहारों पर
येनकेन पहुँचते हैं ये भी
धक्के खाते हुए घाटोल,बिछीवाड़ा,सीमलवाड़ा
सरीखे कस्बों में बसे बाई-दादा के पास
इनकी भी अपनी जड़ें-तना और शाखाएं हैं

कुछ खुशफहमियाँ और कि
ये भी अनाज-दाल-चावल ही खाते हैं
और लेते हैं साँस हमारी ही तरह
हँसते-मुस्कुराते और रोते हैं
ये भी

रखते हैं स्वाभिमान की दौलत
अपनी जेबों में भरकर
कड़ी मेहनत का खाते हैं ये भी
रोज़-बरोज़

इतना भी मत घूरो इन्हें
सांवली देह या गुनाहगार की तरह
इनके भीतर भी जमा हुआ है
अपार गुस्सा उबलने को आतुर

आदिवासी-5

वे नहीं भूले हैं अब भी कि
मानगढ़ में उनके ही पुरखे शहीद हुए थे
खटाखट
किसी अंधड़ में पेड़ से गिरे फलों की तरह

आँक सकती है अब भी
इनकी दिमागी शक्ति
उन धराशायी होती देहों का मूल्य
और अवदान


उन्हें याद अब भी
सम्प सभा और एकी आन्दोलन की
बैठकों में खाई कसमों का मोल
और उनकी पालना में जाती हुई जाने

नीमूचणा, डाबड़ा, नीमड़ा के बलिदान
यूं विस्मृत नहीं किये जा सकते
एकाएक
हाशिये पर दर्ज बयान की तरह उपेक्षित
नहीं किये जा सकते

उनके मानसपटल पर देवता जैसे कुछ नाम अंकित हैं
मामाजी, सुरजी, तेजावत
ये सूचि गोविन्दगिरी,भोगीलाल पंडया से होती हुई
गोकुलभाई भट्ट और हरिदेव जोशी पर जा ठहरती है

वे कुछ भी नहीं भूलें हैं
न इतिहास के कड़वे घूँट
न वर्तमान का विवशताभरा जीवन
तथ्य सारे के सारे जबाँ पर एकत्र हैं इनके
किसी ख़ास मौके की तलाश में
ज़हरीले तीरों की तरह

आदिवासी-6

सरस नही है इनका जीना
चलना अबाध दूर के रास्ते
फिरना घुमक्कड़ी में यहाँ-वहाँ

यात्रा के हैं कुछ तयशुदा मकसद
इनके अपने रास्ते हैं
और हैं मंझिलें इनकी तयशुदा

इनके मन में भी है कहीं
बहते हुए स्रोते सा
जीवन का उल्लास
जो पाँव उखड़ने नहीं देता

बहते-रुकते और फिर चल पड़ते
इस सफ़र में
कुछ तो ठोकरें हैं इनके लिए

उमंग हर इतवार जुटा ही लेते हैं
ये हाट-बाज़ार से
खुशियाँ अपार ले आते अपने घर
बेणेश्वर-भगोरिया के-से मेलों से
और फिर मरते-मरते जी पड़ते

यूं खुद पर ही ज़िंदा है ये
उगाते हैं खुद ही रोज
अपने हिस्से का उजास

*माणिक *
 
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