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25 जून, 2013

25-06-2013

एक दौर था जब हिन्दी साहित्य के बड़े बड़े लोग रेडियो में आये या यों भी कह सकते हैं कि उन लेखकों की वजह से ही रेडियो की इमेज बड़ी हुयी। यहाँ 'लेखकों' शब्द को कलाकारों और संगीतकारों से भी बदल कर देखा जा सकता है। रेडियो में होना बड़ा काम माना जाता था।हमारे एक उदघोषक साहेब कहते हैं कि जब मैं यूथ प्रोग्राम का कॉम्पियर था तब गली में मेरे प्रोग्राम के हित आने-जाने को लेकर लोग बातें करते थे। मतलब एक शान होती थी रेडियो के आदमी की। उस ज़माने में और कमोबेश अब भी रचनाकार का रेडियो से प्रसारित होना उसकी दिखावटी जन्मपत्री में उल्लेखित करने का एक मोटा पॉइंट बनता था। जिस शहर में रेडियो स्टेशन होता वहाँ अक्सर एक ठीक सोच वालों का समूह बनता था। वैचारिक चर्चाएँ होती थी। कॉफ़ी-हाउस-कल्चर हुआ करता था। प्रोग्राम ऑफिसर अक्सर साहित्यिक रूचि संपन्न होते ही थे। लिसनिंग के कीर्तिमान होते थे। खासम-ख़ास कार्यक्रमों के वक़्त लोग रेडियो के इर्दगिर्द जमा मिल जाते थे। वार्ताकारों का पूरा मान-सम्मान होता था।दिए गये विषय पर गहन चर्चा और अध्ययन के बाद रेडियो में सामग्री प्रसारित होती थी।प्रसारित सामग्री को लेकर अधिकारी सहित, वार्ताकार, श्रोता यहाँ तक रिकोर्डिंग इंजीनियरिंग तक संवेदनशील नज़र आते थे।कई मर्तबा तो कोई गायक या वादक रिकोर्डिंग कराते वक़्त इंजिनियर की दाद को पाकर बड़ा प्रफुल्लित होता था।

मुआफ़ करना मामला अब कुछ बदल गया है। आदमी कम पड़ते जा रहे हैं और काम उतना ही है। कम बजट में अच्छे काम की ख्वाहिश के बीच कितना पानी बह गया सब जानते हैं।आज के अखबार में छपे आलेख या जानकारी को एक-दो दिन में ही कोई कॉम्पियर रेडियो में बड़ी शान से पढ़ता हुआ मिल जाए तो आश्चर्य नहीं है। ले दे कर गूगल या विकिपीडिया, इससे आगे कुछ भी आशा मत पालिए। एंकर अखबार के चार पन्ने (सम्पादकीय वाला पेज छोड़ कर) पढ़ने के बाद ही दिन को बीता हुआ मान लेता है उससे क्या आस पालेंगे आप? जिसे गिनती की चार पत्रिकाओं के नाम याद नहीं रहते वो आपको नया कुछ भी देगा ये महज एक गलतफहमी ही है जनाब। धीरे-धीरे श्रोताओं ने रास्ता बदल लिया।एंकर-उदघोषक अपने रवैये पर कायम हैं।बहुत कम लोग हैं जो अपनी मेहनत और सृजनात्मकता के साथ बने हुए हैं।उन्हें मेरा सलाम।

वक़्त इतना बदल गया है इस बीच एक दिन अचानक ऐसा भी हो सकता है सोचा नहीं कि एकऐसा कोलेज प्रोफ़ेसर दिखेगा जो बतौर वार्ताकार दिए गए रिकोर्डिंगसमय पर आ ही टपके। अपनेस्कूटर को किक मारते-गिरते-गिले होते येन केन बरसाती ओढ़े एक सहज और ईमानदार लेखक ठीक पांचबजे आकाशवाणीपहुँच जाएगा। वक़्त की पाबंदी की भी हद है भाई, वो शख्स चाहता तो भारी बरसात के नाम पर एस्क्यूज ले सकता था। छोटे बहानोसे टालमटोलकरने वालोंकी जमातके बीचदिए गएटोपिक परमेहनत औरसमय कीपालना केमद्देनज़र आजराजेश चौधरीजी नेफिर एकबार दिलजीत लिया। यों तो हम उनकी पंक्चूलिटीछाप गतिविधियों से भले से परिचित थे ही। ये एक और वाकिया हो चला।येवही माहौलहै जहां हमारे आसपास स्कूली लेक्चररछाप लेखक-कवि-तिकड़मी अपनी पिछली रिकोर्डिंगके नब्बे दिन पूरेहोते हीकार्यक्रम अधिकारी के आसपास कुदड़के लगाने लगते हैं। 'लेखक' शब्द की कल्पना उसके 'स्वाभिमान' सहित ही की जाए अब बेमानी लगने लगा है। जबकि सच तो यह ही है कि दोनों कोअलग-अलगदेखा ही नहीं जा सकता।मगर अफ़सोस हम लेखक के बजाय व्यापारियों से गिर गए हैं।ऐसे भी बिजनसमेन टाईप के रचनाकार संख्या में लगातार बढ़ रहे हैं कि अपनी पहुँच के बूते नब्बे दिन के भीतर राज्य के पांच संभागीय मुख्यालयों में रिकोर्डिंग करवाने का कीर्तिमान बनाते देर नहीं करते हैं।
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युवा पीढ़ी के लू-लपर से लबरेज फेसबुक पर कई काम-के लिंक भी मिल जाते हैं। दुर्भाग्य से हमारे कई मित्रों द्वारा साझा रस्मी तस्वीरों के बीच हमें इसी समाज का यथार्थ दिखाती तस्वीरें भी देखने को मिल जाती है।फेसबुक का महत्व अभी तक तो बना हुआ है आगे का अंदाज़ लगाना ज़रूरी है क्या? टाइम-लाइन स्टेटस की बाढ़ में मैं कर्मठ विचारक, कभी-कभी कवि और कभी-कभार 'असुविधा' के मोडरेटर अशोक कुमार पाण्डेय,  'जानकीपुल' वाले प्रभात रंजन, 'हुंकार' वाले विनीत कुमार, अच्छी पोस्टों को मित्रों में साझा करने के काम लगे ठेकेदार-संयोजक 'रवि कुमार' सहित 'कथन' के  संस्थापक रमेश कुमार उपाध्याय जी को रोजाना ढूंढ के पढ ही लेता हूँ। 'ज्ञान' की एकाध बात मैं भी लिख-छापता हूँ। कुछ लाइक मिल जानेभर से दिल को तसल्ली मिल जाती है और 'ज्ञानवान' होने की गलतफहमी बनी रहती है।इसमें बुराई क्या है जब समाज का अधिसंख्य हिस्सा ही गलतफहमी में जी रहा है।

कुँअर रवींद्र और प्रेमचंद गांधी जैसों की कविताओं के साथ ही हिमांशु पंड्या और आशुतोष कुमार जैसे अध्येताओं के स्टेटस का इंतज़ार फितरत में शामिल हो गया है।जब भी फिल्म समीक्षा पढ़ने का मन किया मैं 'चवन्नी-चेप' ब्लॉग की तरफ ही निकला। इस बीच ये अनुभूति भी कि कभी फेसबुक मुझे एक बड़ी लाइब्रेरी के माफिक लगा है।मुआफी इस बात की दे देना कि मुझे 'धर्म विशेष' या फिर 'फूहड़' के गणित में फिट बैठती तस्वीरें साझा करती पीढ़ी से कभी लगाव पैदा नहीं हो पाया। ज़रूरी आमंत्रणों और समाचारों सहित आयोजनों की रिपोर्टों को यहाँ प्रकाशित रूप में पाकर मैंने फेसबुकी मंच को एक वैकल्पिक मीडिया के रूप में देखा है।ये मेरी खुशी और आत्मसंतुष्टि का सबब मान लें तो भी कोई गुरेज नहीं होगा।

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