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07 अगस्त, 2013

07-08-2013


सच मानिए ये अनुभूति मुझे कई बारी हुई कि हमारे बुजुर्गों ने बहुतेरे काम बड़े बेहतर ढ़ंग से किए हैं। उस्ताद असद अली खान साहेब के साथ के वे पाँच दिन याद करने बैठू तो गदगद हो उठता हूँ। अफ़सोस वे आज नहीं रहे मगर आज अचानक जब यूट्यूब पर उनके रूद्र वीणा वादन का एक लिंक देखा तो एक घंटे की इस उपहारनुमा संगत को सुने बगैर रह नहीं सका। वे तमाम सजीव कार्यक्रम याद आ गए। दिशा भटके मन को एकाग्र करने के लिए कभी रूद्र वीणा बजाई जाती रही। मैंने जीवन में इतने भारी-भरकम और मुश्किल से साधा जा सकने वाला वाध्य यन्त्र बजाते हुए दो ही कलाविदों को देखा और सुना।एक असद अली खान साहेब दूजे उस्ताद बहाउद्दीन डागर जो अब मुम्बई में हैं।

बहाउद्दीन जी को इसी साल मई माह में कलकत्ता में हुए एक स्पिक मैके अधिवेशन में रात की बारह से दो बजे तक सुना। असल में कभी लगता है ये वादन केवल सन्नाटे में सुनने का है। ये भी लगा कि अपने अन्दर की यात्रा करने के लिए रूद्र वीणा सबसे ज्यादा मुफीद है। दिल्ली के आचार्य किरण सेठ बताते हैं कि खंडारवाणी स्टाईल में गरुड़ासन में बैठ बजायी जानी वाली रूद्र वीणा के जानकार कलाकारों में थे असद अली खान साहेब।इस घंटेभर की कड़ी को आप मेरे लिए केवल एक बारी सुनिएगा।ये एक यात्रा के माफिक लगेगा। एक और ज़रूरी वाक्य जो मैं इसी मई वाले स्पिक मैके छाप अधिवेशन से बकौल पंडित शिव कुमार शर्मा जी उधारी में यहाँ चस्पा कर रहा हूँ कि शास्त्रीय संगीत सुनने और आनंद लेने के लिए शास्त्रीय संगीत के ज्ञान की कोई ज़रूरत नहीं होती हैं। 

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