तुर्रा-कलगी कार्यशाला के पहले दिन रविवार होने के बावजूद, मैं अपनी आकाशवाणी की ड्यूटी को बड़ा मानते हुए आयोजन में नहीं जा पाया, पूरे दिन भर मन में सोच-विचार का सिलसिला करवटें बदलता रहा। पिछले कुछ वर्षों से कलापरक आयोजनों से मेरा जुड़ाव और मेरे कुछ बड़े साथियों से सुनी कहानी के बूते, तुर्रा-कलगी शब्द से थोड़े रूप में तो मैं, पारिवारिक था ही, लेकिन मन में इस कला के उन सुगठित, संघर्षशील कलाकारों और उनकी कलाकारी को बहुत नजदीक से देखने की बात दिल में दबी पड़ी थी। मेंने रविवार की सुबह कलाकारों को पहनाई जानेवाली मालाओं को एक डण्डी में लटकाने और पहले दिन की शाम, कलाकारों से अनौपचारिक बातें करने के लिए थोड़ा-सा समय निकालकर, खुद को तथाकथित रूप से संस्कृतिकर्मी को साबित करने में सफल रहा।
दूसरे दिन सरकारी स्कूल की मास्टरवाली नौकरी से छुट्टी लेकर अपने कुछ अटके हुए काम निपटाने के बाद आयोजन में जा पहुँचा। लम्बा सफेद कुर्ता और जीन्स पहनने से मैं एक कलाकर्मी या पत्रकारनुमा छविवाला लग रहा था, सो आगे की कुर्सी पर जा बैठा। खैर! मंच पर चलने वाली बातचीत, अनौपचारिक अखाड़ा प्रदर्शन और कार्यशाला संचालक के बीच बचाव करते संचालन से कई सारी बातें, इस कला के बारे में सुनने और देखने को मिली। संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर के सहयोग से चल रही उस चर्चा में भारतीय लोककला मण्डल, उदयपुर के कलाधर्मी जानकार डा. महेन्द्र भाणावत के सानिध्य में मेवाड़ और मालवा के सत्तर अस्सी पुरुष कलाकारों ने विभिन्न दौर की बातचीत और संवाद पूरे किये। मध्यम-मध्यम मदमाती शहनाई और ढोलक पर लगातार थाप लगाते हाथों वाले वे गुमनाम कलाकार मेरी आखों के सामने थे और मुझे कोई बड़ा आदमी समझ गुरते हुए गा बजा रहे थे। गाँवों की चैपालों पर गीतों और आशु कविता से भरे पूरे संवादों वाले माच खेल के उस कार्यक्रम पर पहलीबार शहर के लोगों के बीच बातचीत हो रही थी। शायद पहलीबार आयोजित इस कार्यक्रम में आशा के अनुसार बुद्धिजीवियों और थोड़ा बहुत लिखने-पढ़ने वाले लोगों की शिरकत भी नहीं हो पाई। आप इस बात से भी सहमत होंगे कि जो ऐसे कार्यक्रम की जरूरत पर जितना जोर से बोलते है, मौका आने पर ऐसे कार्यक्रमों में आने के लिए उन्हें घर परिवार के कई सारे काम का याद आना, आम बात है। खैर कुछ घण्टों के लिए पुरखों से चली आ रही इस विरासत को दिखाने के लिए नाम मात्र के लिए मानदेय को बहुत पीछे छोड़, सम्मान के लिए आये उन कलाकारों ने गंवई संस्कृति में रात-रात भर चलने वाले तुर्रा कलगी जैसे अखाड़ों के नाट्य प्रदर्शन को कुछ रूप में हमारे सामने लाने की बेहतरीन कोशिश की।
तुर्रा कलगी के आयोजन, वक्त के साथ संख्या में कम होते गये हों मगर आज भी उनकी अपनी अनुठी परम्परा से उनके बारे में बात करने वाले और उन्हें पसन्द करने वाले ईमानदार दर्शकों की कमी नहीं है। मनोरंजन से कई ज्यादा आस्था और इतिहासपरक लगने वाले ये कार्यक्रम कुछ हद तक बचे कुचे रूप में आज भी गतिमान हैं। इन अखाड़ों के कुछ माने हुए गढ़ों में सावा, शम्भुपुरा, निम्बाहेड़ा, घोसुण्ड़ा और चित्तौड़गढ़ गिनाये गये है, इन अखाड़ों के गुरु, उस्ताद कहे जाते और दूजे कलाकार खिलाड़ी कहे जाते हैं। माच ख्याल की यह परम्परा कुछ शोध के बाद चित्तौड़गढ़ से ही निकली सिद्ध हो गई है। ऐतिहासिक तौर पर शाहअली और तुकनगीर द्वारा स्थापित इस धरोहर को आज भी ये अखाड़े आगे बढ़ा रहे हैं।
गमछा, पुराना कोट, पहचाने हुए धोती-कुर्ता जो रोजमर्रा की जिन्दगी के ज्यादा आस-पास नजर आते है ऐसे पहनावे वाले सभी कलाकार अपने कई लोकगीतों और भजनों से दिन भर की गतिविधियों में रंग भर रहे थे। ये कलाकार भजनों और आम बोलचालपरक संवादों के बीच-बीच में कभी कभार ठुमक भी लेते जो एकदम से दर्शकों का ध्यान खींच लेता था। जहां गीतों वाले संवादों को गाते समय गीतों की राग और टेर कभी भी बीच -बीच में बदल जाती है वहीं लम्बे संवादों को याद दिलाने के लिये मुख्य कलागुरु, गायक खिलाड़ी के कान में बिना किसी शंका-शर्म के पारिवारिक आयोजन मानते हुए दो-दो पंक्तियाँ याद दिलाता जाता है। ऐसे में कभी-कभी खिलाड़ी के गलत बोल जाने पर गुरु, आम दर्शकों के सामने ही भले ही टीवी, रेडियो और मोबाईल आज मनोरंजनपरक संस्कृति का खास हिस्सा बन गये लगते हों लेकिन आज भी आस-पास के गाँवों में तुर्रा कलगी के ऐसे ख्याल का ऐलान हो जाने भर से ही लोगों में चर्चा शुरू हो जाती है।
सर्दी की रातें हो या भरी गर्मी की रातें, गाँव की किसी चैड़ाई वाली जगह पर आमने-सामने दो बड़े मचान खुले रूप में बनते हैं। एक देवतापरक तुर्रा अखाड़े के लिए और दूजा शक्तिरूपी कलगी अखाड़े के लिए बनता है। इस लोकनाट्य परम्परा के गीतों को लिखने के लिए कई गीतकार भी होते थे। इन अखाड़ों के पुराने कलाकारों में चैनराम गौड़, नारायणलाल गन्धर्व जैसे गुरुओं की मेहनत से चल पड़े अखाड़ों को आज भी अकबर बेग, राधेश्याम राव, प्रभुलाल चितौड़ीखेड़ा, सत्यनारायण गन्ध भँवरलाल गन्धर्व, मोहनलाल ग्वाला, उस्मान भाई जैसे सुयोग्य शिष्यों ने परम्परा को चला रखा हैं। इन अखाड़ों के ये कलाकार शौकियाना तौर पर ही ये काम करते है, मगर रोजी रोटी के लिए तो आज भी इन्हें मेहनत-मजूरी और कुछ छोटे-मोटे व्यवसाय के भरोसे ही रहना पड़ता है। इस उम्रदराज परम्परा से मेरा ये पहला मिलाप था जो आंशिक रूप से खेल प्रदर्शन के साथ ही उन संघर्षशील कलाकारों को आगे बढ़ाने के लिए बातचीत और चर्चा का अवसर भी बना। इन कलाकारों ने ज्यादातर राजस्थान से बाहर दिल्ली, मुम्बई जैसे ही कुछ एक-दो बड़े शहरों में अपनी कलाकारी दिखायी है। इनमें कलाकारी तो ठूस कर भरी पड़ी है मगर इनका दोष केवल इतना भर लगता है कि ये मुम्बई में पैदा नहीं हुए, या इनके माँ-बाप लोकप्रिय नहीं हैं, या कि फिर कोई बड़ी विरासत से इनका वास्ता नहीं। टीवी से आम आदमी तक अपनी पहचान बना पाने के तरिकोंवाली इस दुनियादारी के बीच ये कलाकर अपनी लड़ाई खुद ही लड़ रहे हैं। कभी सरकारी सहयोग काम आया तो कभी गाँवों के वे भोले भाले आयोजन जहाँ मानदेय और आदर बराबर रूप में मिलता रहा। इन आयोजनों के बहाने हम इन ईमानदार कलाकरों का अपनी माटी, अपने इतिहास, अपनी देवताओं की संस्कृति, अपने बुद्धिमान गीतकारों और कलावृन्दों के साथ प्रेम, इनकी कलाकारी में पूरे रूप में उभरकर दिखाई पड़ता है। बिना किसी बड़ी व्यावसायिक बातचीत के, केवल कला के इस रूप के प्रति कलाकारों के इश्क ने ही इन्हें इस राह पर आज तक आगे बनाये रखा है।
मात्र ढ़ोलक, मंजिरें, पुंपाड़ी (शहनाई) और हारमोनियम जैसे गिने चुने, बहुत पुराने और थोड़े से वाध्य यंत्रों के भरोसे ही सुरीला संगीत पैदा करने वाले ये आम आदमी से लगने वाले कलाकार मुझे बहुत गहराई तक अपील कर रहे थे। भले ही काॅपीराइट जैसी परम्परा आज की देन है मगर अपनी गायकी में बहुत ऊँचे तक गा पाने की कारीगरी रखने वाले इन कलाकरों के गीत और संवाद इनके अपने गुरुओं और कुछ चुनिन्दा गीतकारों ने लिखें है, जिनका नाम छाप के रूप में गीत के अन्त में पुरी ईमानदारी के साथ ये लोग गाते भी हैं। प्रमुख गीतकारों में चैनराम गौड़, नारायण नाई, चन्द्रशेखर, मोहनलाल सेन जैसे कलाकार शामिल रहे हैं। रचना का कार्य कुछ स्तर पर आज भी गतिमान हैं।
ड्रेस डिजाइनर और कोरियोग्राफर की जरूरतों वाले गणित से बिल्कुल अनजान, ये कलाकार यूं ही अपनी इस यात्रा में अस्तित्व को बनाये रखे हैं। वहां जमा हुए कलाकारों में दो पगड़ी वाले बुजुर्गों के साथ बाकी सभी युवा ही थे जो इस परम्परा के भविष्य को लेकर उठे प्रश्नों पर आश्वस्त करते नजर आ रहे थे। अलग-अलग अखाड़ों के ये कलाकार भले ही आज साथ में बैठकर बातचीत और भोजन कर रहे हों लेकिन मंच पर मुकाबला करते समय पूरे आवेश और प्रतियोगिता की उसी भावना से अपने संवादों में भावों से भरे नजर आते हैं। इस आलम से मैं तो यही समझ पाया कि लोक/आम को बहुत ज्यादा नही आंकना गलत ही है, जो कुछ भी हमारी विरासत का हिस्सा मिट्टी से जुड़ा है, आम आदमी के बहुत करीब है, नियमों के बंधन से बहुत दूर है, वही लोक विरासत है जिसे हमेशा हमें एक ऊँचे रूप में देखना चाहिये। ये वो संस्कृति है जिसे आज भी गाँवों में संतों के संगीत वाली संस्कृति के रूप में पूरे आदर के साथ पूजा जाता है। वैसे इन पुरानी चीजांे को गुमनामी का ईनाम देने के लिए हम लोग ही जिम्मेदार हैं, हमने अपनी रूचियां बदल ली है और हाँ ऐसे में कोई भी अपनी जड़ों को ही काटकर कब तलक हरा-भरा रह पायेगा? सोचने की बात है। पहले लम्बे चैड़े शौकियाना कामों की लिस्ट पालना, ऊपर से होड़ा-होड़ करना, हमारी फितरत में हैं, फिर इन बेचारी लोकरंगी, दम तोड़ती कलाबाजियों के कम लोकप्रिय कार्यक्रम को वो ही देखता है जिसने अपनी धरती की महत्ता को अपने संस्कारों की वजह से सही रूप में समझा है। बाकी लोग तो इन्हें मंनोरंजन के लिए बना हुआ साधन समझकर ही अपनी दुनियादारी में लगे है।
आस-पास के भूगोल की जानकारियों से भरे हुए गीतों और अपने जमानें की अमर कविताओं को उपयोग करते हुए तुर्रा-कलगी के ये कलाकार देश भर में अपनी मिट्टी को याद करते रहें हैं, कभी भक्तिपरक देवत्त्व संस्कृति की पोथी पढ़ते नजर आयें तो कभी मंचों पर दुर्ग चित्तौड़ और इसके इमारती इतिहास पर बोलते नजर आयें। एक बड़ी बात जो मैं समझ पाया वो ये है कि हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदाय के कलाकारों के द्वारा अभी तक किये गये इन समन्वित प्रयासों की ये गहरी नाट्य परम्परा एक नजर में साम्प्रदायिक सोहार्द और आपसी मेल मिलाप का संदेश देते हुए अपनी मिट्टी के लिये लगाव रखने को सबसे बड़ी जरूरत साबित करती है। तुर्रा और कलगी के साथ ही और भी कई अखाड़े इस प्रादेशिक इलाकें में हुए है जिनमें गढ़, अनगढ़ हो सकते है। भले ही ये कलाकार घंटों चलने वाले अपने मुकाबलों को कलाकारी के साथ-साथ प्रतियोगिता समझते हो, मगर असली रूप में तो ये दोनों ही एक ही नाट्य कला के रूप हैं। अलग-अलग अखाड़े एक तरह से घरानें हैं मगर दूजी तरफ से पूरे देश में फैली ख्याल परम्परा के बीज कहलाकर चित्तौड़गढ़ को जन्म स्थली के रूप में प्रसिद्ध कर रहे हैं। माच शैली के इन कार्यक्रमों की जड़ें तो इन अखाड़ों की मजबूती के साथ ही मजबूत बन सकती है अखाड़ों के सशक्तीकरण के लिए गुरुओं-उस्तादों और शिष्यों-खिलाड़ियों के लिए सरकार और रूचिशील सामाजिक संस्थान, प्रेम, सम्मान, कलाकार पेंशन या आयोजन के अनुसार समुचित बजट प्रावधान रखे, ये बहुत जरूरी हो गया है। दूसरी तरफ इन अखाड़ों के बीच आपसी संवाद और बैठक परम्परा के स्थापित नही होनें से भी इनके विकास में कई सारे रोड़े बने हुए हैं।
भौतिकतावादी इस दुनिया में पैसे कमाते लोगों की ये भीड़, मेरी अपनी धरती की इस कलाकारी को अपने ही बुजुर्गों की बनाई हुयी स्वस्थ संस्कृति और अपनेपन की झलक समझते हुए अपनायेगी, उसके आयोजनों को कम से कम एक बार देखने का वक्त निकालेगी, या कम से कम बिना देखें और सोचे समझें इन परम्पराओं पर कोई गलत राय तो नही बनायेगी, ऐसा मैं सोचता हूँ। वक्त ने तो वक्त-बेवक्त कई जुल्म इन परम्पराओं पर ढहायें ही हैं मगर कला और संस्कृति को केवल मंनोरंजन का साधन समझने वालों की बढ़ती हुई जमात से मैं क्या आप भी चितंन की अवस्था में आ पहुंचे होंगे।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें