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29 नवंबर, 2013

29-11-2013

आओ 'पीत पत्रकारिता' सीखें (यह बड़ी काम की चीज है)

एक सम्पादकीय पढ़ी उसमें सारे वाक्य अभिधा में थे.जैसे छट्टी का बच्चा गाय/मोर/स्कूल पर निबंध लिखता है.हिंदी की मार अशुद्दियां भी थी.मानों सम्पादकीय के बजाय श्रुतिलेख प्रतियोगिता हो.हर सातवीँ पंक्ति में एक ही टाइप के भगवान् की जयजयकार थी.हम भी एक मीडिया हाउस चलाएंगे,अपने ससुर जी को संरक्षकखुद को स्वामीअर्धांगिनी को प्रकाशकफुफेरी बहिन को सम्पादकमामाजी के बड़के कामचोर लड़के को प्रबंध सम्पादकबेटी को कॉलमनिस्टनाजोगे और अभी तक नाबालिग बेटे को कार्टूनिस्ट, दूर के मोसेरे भाई को सलाहकार,मित्रों को वितरकमहिला मित्रों को टाइपिस्टजीवन में सभी तरफ से फेल हुए बन्दों को फोटोग्राफर बनाएंगे।पाठकों को हम फ्री फंट में अखबार पढ़वाएंगे।एकदम विज्ञापन रहित अखबार चलाएंगे।है ना कमाल।

एकदम 'घरेलू अखबार' के माफिक।और तो और सारी की सारी पाठकीय टिप्पणियाँ ऐसे बनावटी ढंग से फ़र्ज़ी नाम से प्रकाशित करेंगे कि आपका बाप भी नहीं पहचान पाएगा।जितने स्टिंग ऑपरेशन करेंगे उनमें हमारा निजी स्वार्थ इस कदर छिपा रहेगा कि आपको भनक तक नहीं लगेगी।एक और ज़रूरी बात अधिकाँश ममटेरियल कट-कॉपी-पेस्ट तकनीक से ऐसे उड़ा-उड़ाके यहाँ छापेंगे कि आप के नानाजी भी नहीं ढूंढ सके.अमूक इमली वाले बावजी का आशीर्वाद रहा तो जल्द ही एक जीमणा करेंगे उसमें सभी नामचीन/काम के पाठकों/सफेदपोशाक  धारकों/इमली वाले बावजी के भोपाजी को हजुरियों सहित बुलाएंगे।हमें मालुम है बहुत सारे महान आदमी जीमणे के हाँटे की अपना स्वाभिमान भूल जाते हैं.हमें इस बात का भी तकाजा है कि ब्लेक मेलिंग कैसे की जाती है.हाँ जीमणे में ज़रूर आप अंदाज लगा सकेंगे कि हमारा अखबार चलने में धन कहाँ से आ रहा है.मगर हाँ जीमणे में केवल वे ही आमन्त्रित हैं जो हमें शक की निगाह से नहीं देखते हैं या फिर जिनका खुद का स्वार्थ भी हमारे स्वार्थ से मेल खाता है


आखिर में  कहना चाहते हैं कि हमें इस भविष्य में आने वाले मीडिया हाउस हेतु कुछ गेलसप्पे किस्म के संवाददाताओं की ज़रूरत पढ़ेगी जो भले किराणे की दुकानदारी करते  है मगर कभी कभार कलम घिसाई करने को राजी हों,आवेदन कर सकेंगे।उन बेरोजगारों का भी स्वागत रहेगा जो लगभग दिशाभ्रमित बनकर स्थिति में घनचक्कर बने हुए जी रहे हैं.कुलमिलाकर हम चाहते हैं हमारे हाउस में सबकुछ अजायबघर की माफिक हो. एक आदमी ऐसा नहीं चाहिए जो हमारी इस धनकमाऊ और एकसूत्रीय नियत पर अंगुली उठाए।असल में अब आप शायद समझ गए होंगे कि हम कहने को कोई अखबार निकाल रहे हैं वास्तविकता यह है कि हम ज्यादा पढ़ लिख तो सके नहीं,बाद में पत्रकारिता का कोई कोर्स-वॉर्स भी नहीं किया। हाँ नाम-वाम की ज़रूर लालसा रही मन में.फिर लगा पुलिस,ऑफिसों की चक्करबाजी में अर्दली सहित ऑफिसरों से जान पहचान ज़रूरी है। कभी-कभार नेतानगरी से हमारे प्रोपर्टी के धंधे में जेला लग जाता है.मतलब यह पत्रकारिता का चस्का और नुस्खा बड़ी काम की चीज है.

(बोलो 'घरेलू' अखबार की जय)

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