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01 जून, 2014

01-06-2014


  • 'बदायूं' का दर्द समझने के लिए यूपी का निवासी होना ज़रूरी नहीं है.औरतों के प्रति ग़लत-सलत वारदातों पर आदमीजात तो बोले ही मगर स्त्री शक्ति को भी बोलना उतना ही ज़रूरी है.कुलमिलाकर यह मुआमला उदासीनता का भी है.मेरा अनुभव कहता है कि चित्तौड़ में महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाला एक भी स्त्री समूह या स्त्री विचारक चेहरा नहीं है जो देशभर के साथ ही जिले में औरतों के प्रति लगातार बढ़ती हुयी हिंसक वारदातों के लिए नारेबाजी करे,धरना दे,ज्ञापन दे,हस्तक्षेप करे.इस मायने में भी हमारा इलाका बहुत ग़रीब है कि यहाँ कोई भी स्त्री समूह(अनौपचारिक/औपचारिक) आवाज़ उठा रैलियाँ नहीं निकालता है.जिला स्तरीय सार्थक बहसबाजी में दख़ल नहीं देता.जघन्य बलात्कार और राष्ट्रीय सन्दर्भ की बड़ी दर्द्कारक घटनाओं पर भी हमारे यहाँ महिलाएं ना तो कुछ बोलती नहीं,ना ही मिलती है,ना ही एकजुट हो चर्चा करती है.गज़ब की उदासीनता है. हाँ याद आया इस इलाके के स्त्री समूह बहुत सहूलियतभरे अंदाज़ और उद्देश्यों के साथ संचालित हैं.जैसे गणगौर मनाओ,घूमर नाचो,नदी में दीये तैराओ,नाच-गान का आयोजन करो,मेहंदी बनाओ प्रतियोगिता करो.भजन गाने और सत्संग में ही जीवन बुढा रहा है.यथार्थ से कम लगाव का ये नज़रिया बड़ा खतरनाक है.नगर में कई ऐसे शिक्षण संस्थान भी है जहां सिर्फ महिलाएं ही पढ़ती है कौन जाने वहाँ क्रान्ति के विचार पढ़ाए जाते होंगे कि नहीं.अधिकारों के लिए लड़ने और दख़ल देने के सलीके सिखाए जाते होंगे कि नहीं.मन में डर है कि यह नयी पीढ़ी फिल्मिस्तान,इंटरनेटी दुनिया और मोबाइल कल्चर की बातों से बाहर निकल वक़्त जुटाकर राष्ट्रीय मसलों पर अपनी समझ को विकसित कर पायेगी कि नहीं.
  • चित्तौड़ कलक्ट्रेट के पर स्थित महिला एवं बाल चिकित्सालय में अनुष्का दो दिन भर्ती रही.मैं शुक्रगुज़ार हूँ डॉ जयसिंह जी और उनके नर्सिंग स्टाफ का.वे बहुत ईमानदारी और मेहनत के साथ काम कर रहे हैं ऐसे डॉक्टर बहुत कम होते हैं.
  • हमारे समाज की पलटीमार आदतों के चलते लगता है यहाँ 'स्वाभिमान' अब मसला नहीं रहा.फिर भी 'महाराणा प्रताप जयंती' मुबारक
  • अफ़सोस:हम कई मर्तबा सामाजिक संगठन बनाते हैं,फिर कम महत्व के मुद्दों में ऊर्जा खपाना सिख जाते हैं जहां से असल विकास का लेना-देना कम ही होता है.इस तरह ये एकजुटता हमें संकीर्णता की तरफ ले जाती है.खुलकर सोचना है तो खुद को सीमाओं में बांधों मत,तमाम संकीर्ण परफोर्मों से बाहर आओ मित्रो.चित्तौड़ शहर के बीचोंबीच दो नदियाँ बहती है एक गंभीरी और दूसरी बेडच.नदी में कई गरीब-आदिवासी-ग्रामीण पर्यटक नहाते हैं उसी में आप लोग टट्टी-पेशाब करते हैं.नदी के किनारे ऐसी जगहें छोड़ रखी है कि लगता है टट्टी-पेशाब के लिए ही एकांत दे रखा है.कई बार तो शहर के लोग भी शौकियाना नहाने जाते ही हैं.और तो और नदी के किनारे ही शहर के नाले आ खुलते हैं.लीकेज होते हैं.शहर की कचरा गाड़ियां वहीं आ खाली होती है.हम इन नदियों की खूबसूरती कभी भी समझ नहीं सकते हैं.हालात ये हैं कि इन नदियों पर ठीक से घाट नहीं है.हाँ अब शंकर घट्टा ज़रूर बहुत सुन्दर हो गया है.अब कुछ देर वहाँ इत्मीनान से बैठ सकते हैं.काश नदी के किनारे सभी तरफ शंकर घट्टे की तरह घाट संस्कृति विकसित हो सके.मगर सबकुछ 'काश' के भरोसे ही तो है.पहले नदी को गंदा करने की हद तक जाओ और फिर उसके गंदले हो जाने का रोना रोओ,गज़ब का गणित है.आओ कभी बैठकर सोचें कि ये नदी गंदी ही क्यों होती है.काका-फूफा-चाची-मामी-नानी के रिश्तों से फुरसत मिले तो सोचना ये 'नदी' भी आपकी कुछ लगती है.चित्तौड़ शहर में इन दिनों राजस्थान पत्रिका ने एक अभियान छेड़ रखा है.नगर की दो में से एक मुख्य नदी गंभीरी की साफ़-सफाई को लेकर.जनसमुदाय को प्रेरित कर जोड़ने और प्रशासन पर दबाव बनाने का ये अभियान किसी मीडिया की तरफ से किए गए नि:स्वार्थ काम का अच्छा संकेत है.मैं जब भी गंभीरी और बेडच नदी में साफ़ पानी को बहते देखता हूँ तो मुझे बनारस, ओंकारेश्वर, होशंगाबाद, हरिद्वार, इलाहबाद, कोलकाता याद आता है. काश इस शहर में भी लोग नदी और किले के प्राकृतिक सौन्दर्य का बोध कर सकें.इनकी क़ीमत का सही आंकलन कर सकें.
  • मैंने आज तक रक्तदान नहीं किया,मानता हूँ करना चाहिए था.मगर मैं महज इसलिए रक्तदान नहीं कर सकता कि मेरी जाति का आदमी आज बड़ा आदमी बन गया है.तो खुशी के मारे रक्तदान कर दूं.कोई साधारण दिन देखकर रक्तदान कर दूंगा.सबकुछ चुपचाप.माँ कसम न तो फोटो-फाटी खिंचवाउंगा और न ही अखबार में खबरें छपवाने के चोंचले करूंगा.दान हमेशा 'गुप्त' ही अच्छा लगता है.
  • चित्तौड़ लगभग छोटा शहर है.कभी-कभी ये आभास उभर आता है जब पता चलता है कि लक्स कंपनी में नेवी ब्लू कलर की 'लेगी' यहाँ नहीं मिलती.खैर चित्तौड़ में एक सब्जी मंडी सीटी में हैं.अकसर वहीं जाते हैं.आज भी गए.आज कुछ फुरसत थी.गोल प्याऊ से लेकर सब्जी मंडी के बीच मैंने आज शाम बेमालिक की गाएं और सांड गिने तो संख्या चालीस पर जा टिकी.मुझे नहीं मालुम शहर में गो-शालाएं कितनी हैं और कहाँ है ? नगर परिषद् की गायों कोलेकर क्या योजना रहती है ये भी नहीं जानता .मगर मेरा मत है कि हर शाम सब्जी मंडी से सब्जी लेकर सही-सलामत घर लौट जाओ तो भाई खुशी के मारे प्रसादी करनी चाहिए कि आज किसी दुर्घटना से बचे.सब्जी मंडी के दो बड़े फाटक है जिनपर दो-दो छोटी फाटक हैं.अमूमन उपभोक्ता छोटी फाटकों से ही आता-जाता है.रात आठ बजे के आसपास शायद वे दोनों बड़ी फाटकें खोलीं जाती है जहां गायों-बछड़ों-सांडों के झुण्ड मंडी में घुसकर बिखरी बेकार सब्जियां खाकर पेट-पूजा करते हैं.अचरज की बात ये देखिए कि कभी-कभी ये बड़ी फाटकें बहुत पहले ही खोल दी जातीं है.अब सब्जी मंडी में मालणों-मालियों के अलावा केवल ग्राहक ही नहीं होते.वहाँ चारेक दर्जन गायें-बछड़े-सांड भी सिंग मारने मुस्तैद रहते हैं
  • देश के दो नामी कलाविदों से आठ जून को मुलाक़ात होगी.मुलाक़ात मतलब वन-टू-वन नहीं.वे गायेंगे-बजायेंगे मैं सुनूंगा.बनारसी गायकी का जगजाहिर स्वर विदुषी गिरिजा देवी जी जिन्हें अकसर संगीत के लोग 'अप्पा जी' कहा करते हैं.दूसरे टी एन कृष्णन जी हैं जो कर्नाटकी स्टाइल में वायलिन बजाते हैं.दोनों को सजीव रूप से कई बार सुना है.फिर सुनेंगे क्योंकि अपनी भीतरी तबियत खुश रखने के लिहाज से यह सालाना रिचार्ज ज़रूरी है.दस जून को आईआईटी मद्रास में देश के नामी चित्र-वीणा वादक पंडित रवि किरण और सिद्धहस्त गायक पंडित उल्हास केशालकर को सुनने का दिन तय हो चुका है.एक साथ आठ दिवसीय इस आश्रमी लाइफ के ज़रिये खुद में ऊर्जा संजोने का अद्भुत अवसर.सालाना जलसे का इंतज़ार लगभग ख़त्म.तयशुदा मित्रों की टोली से कुछ कम मित्रों के साथ एक यात्रा.
  • चित्तौड़ दुर्ग पर बहुत सारे महल हैं.सुदूर उत्तर में पद्मिनी के पति और जायसी की 'पद्मावत' वाले रावल रतन सिंह का महल है.वहाँ इन दिनों जाना हुआ तो देखा दूसरे माले पर बने झरोखे के आसपास की चारों दीवारों पर ठेठ गाँवड़ेल अंदाज़ में बहुत गुंडी-गुंडी इबारतें लिखी हुई है.यह वो जगह जहां से खड़े होकर रत्नेश्वर तालाब का नज़ारा लिया जा सकता है.इबारतें पढ़ते हुए शर्मा आती है.इतनी ऊँचाइयों तक जाकर लिखी गयी कि लगा लिखने के लिए भी सीड़ियों का उपयोग हुआ होगा.मेवाड़ी और हिन्दी का ऐसा गुंडा मिश्रण पहली बार पढ़ा.ये हमारे समाज की उपज है.सारी देखभाल सरकारी विभागों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती है.महल में एक चक्कर में ही आप पंद्रह से बीस कुरकुरे-चिप्स टाइप के पैकेट्स पा सकते हैं.क्योंकि वहाँ कचरा पात्र नहीं है.खाली बोतलें,फोड़ी हुई बोतलें,बिखरे हुए ढक्कन सब यहाँ मिलेंगे.क्योंकि पीने वालों में पीने के संस्कार नहीं होते.महल के प्रवेश पर एक लोहे का फाटक है.आते-जाते पर्यटक खुला छोड़ दें तो आपको महल की सेर के दौरान गडुरे-गाएं-बकरियां मिल जायेंगी आप अचरज मत करना .खैर इतना लिखने का मंतव्य ये है कि क्या बहुत कम मानव मशीनरी और अति अल्प भौतिक संसाधन वाले सरकारी विभागों के अलावा हमारा समाज इन एतिहासिक इमारतों में कुछ हाथ बटा सकता है?सहेजने और जागरूकता के कामों में कुछ सहयोग दे सकता है? क्या शहर को एक आइकोन बनाने वाले इस दुर्ग के एक-एक बड़े महल और पॉइंट हमारी सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं गोद ले सकती है.अगर यह कुछ संभव है तो इसकी गुंजाईश पर राजकीय नियमों में गहरे जाना चाहिए.अकसर चित्तौड़ के किले में जाता हूँ.देखता हूँ कि जब कचरा पात्र ही नहीं है तो बताओ कोई पर्यटक 'कचरा' कब तक हाथ में लिए हुए घूमता रहे.बहुत सारा खुला मैदान देख जाने क्या सोच रखा है उन्होंने कि किसी भी ऐतिहासिक इमारत के आसपास टॉयलेट्स तक नहीं है.बताओ कोई क्या करे.खासकर महिलाएं.पानी तो घर से लेकर ही जाएं.वाटर कूलर या प्याऊ के भरोसे नहीं.भला हो किलेवासियों का जिन्होंने कहीं कहीं मटके लगा रखे हैं.लगभग सारे तालाबों में काई भरी पड़ी है.सभी का रोज़ाना उपयोग भी होता है.मगर देखभाल कौन करें.अपार कचरे से लदे ये तालाब और बीमारियाँ.
  • उनके नाम नहीं जानता मगर उन्हें धन्यवाद कहता रहता हूँ जिनके घर की मुंडेर पर मीठा नीम उगा हुआ है.हम वक़्त-ज़रूरत पत्तियाँ तोड़ लाते हैं और अपनी खिचड़ी-कढ़ी-दाल-सांभर का स्वाद बढ़ाते रहते हैं.
  • कूलर का पेटा उथला है बार-बार पानी माँगता है और टंकी से नली लगाकर पानी भरने का जिम्मा भी हम पर ही है .उफ्फ ये गर्मी (गर्मियों की छुट्टियों में मास्टरों के हिस्से वाले घरेलू काम बढ़ ही जाते हैं.)
  • जब हम सभी एक सरीखा सोचने,एक सरीखा पहनने और एक सरीखे अंदाज़ में जीने लग जायेंगे तब एक राजस्थानी को गुज़रात,एक गुज़राती को तमिलनाडु,एक तमिल को पंजाब,एक पंजाबी को बंगाल जाने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जायेगी.फिर हम क्यों कोहिमा,महाराष्ट्र,उत्तराखंड जायेंगे.सबकुछ एक सरीखा होने से हमें खुद को समय रहते रोकना चाहिए.ये सत्यानाशी ग्लोबलाइजेशन के साइड इफेक्ट है बाबू
  • गाँव से पिताजी आए हुए हैं.वहाँ माँ अकेली है.कल आये आज ही वापसी की जिद पर अड़े हैं.गाँव में छोटी सी किराने की दूकान है.उनके लिए वही बिरला-टाटा के बरोबर का कारोबार है.उसी की चिंता में हैं.चित्तौड़ से कुछ थैलाभर सामान खरीदेंगे फिर शाम की बस से जायेंगे.चित्तौड़ से हमारे गाँव सीधे बस पहले नहीं चलती थी,आजकल रोडवेज की ग्रामीण बस सेवा के तहत चली है.वो भी बारिश के बाद बंद हो जायेगी.तीस किलोमीटर के रास्ते में आठ किलोमीटर आज भी कच्चा है.सवेरे पिताजी को किले पे ले गया.कचोरी-समोसे के साथ पोहे का नास्ता रतन सिंह महल में किया.उनके कहे पर एकलौती बहन मंजू को फोन मिलाया तो हमने सभी ने बारी-बारी से बात की उनका दिल बाग़-बाग़ हो गया.अनुष्का भी साथ थी.वे बोलते कम है और सुनते भी कम ही हैं.कमर झुक गयीं है.रास्ते में कह रहे थे जैसा वे हर बार किले जाते बोलते ही हैं कि जाते समय पेट्रोल ज्यादा जलता होगा आते में कम जलता है,आते में ढलान जो है.इस एक वाक्य में पिताजी ने कितना कुछ कह दिया.कालिका माताजी के मंदिर गए वहाँ उन्होंने हाथाजोड़ी और परिक्रमा के बाद 'भभूत' माँगी.एक पुडकी में थोड़ी भभूत बंधवाई.थोड़ी सी अपनी झुकी हुई कमर में चुपड़वाई.धुप तेज़ हो चली तो घर लौट आए.अनुष्का कहती है अब दादा को नहीं जाने देंगे यहीं रोकेंगे.अपनों के साथ जो खुशियाँ मिलती हैं खरीदी नहीं जा सकती है.
  • पढ़ाई की अपनी व्यस्तता ने मुझे घेर रखा है.मन पर अब नियंत्रण है.फेसबुक न देखता हूँ न ही लिखता हूँ. दिन में बीस मिनट इंटरनेट के नाम बस.बाकी आनंद है.आप सभी की याद आती है.मगर अब कम ही आती है क्योंकि आपके अपडेट्स नहीं देख पाता तो दिमाग में आप नहीं रहते हैं हिन्दी साहित्य और राजस्थान का सामन्य ज्ञान घूमता रहता है.दिनों बाद आज राजेश चौधरी जी के घर गया. एक चाय पर.फोन मिला इधर चित्तौड़ रेलवे स्टेशन पर जयपुरसे मावली जाते समय सदाशिव जी श्रोत्रिय जा रहे हैं.मैं और राजेश जी ट्रेन पर जा पहुँचें.बीसेक मिनट का अच्छा विमर्श हो गया.मोदी केन्द्रित भारत से लेकर इन दिनों के पढ़े-लिखे पर चर्चा.डिब्बे के ठीक बाहर ही सबकुछ चाय के साथ.इससे पहले कुछ महीनों की बात होगी सदाशिव जी से बातचीत में हम सोच ही रहे थे कि इस तरह शहर से गुज़रते वक़्त स्टेशन पर अभिन्न मित्रों से मिलने जाने का चलन ख़त्म हो गया है.अब ऐसे दोस्त ही कहाँ जो एक फोन पर आ धमके.सबकुछ इस बाज़ारीकरण के उपहार हैं भाई.मुझे बीती एक मुलाक़ात याद हो आयी जब सालों पहले मैं पल्लव भैया के कहे पर उनके साथ चित्तौड़ रेलवे स्टेशन पर नन्द चतुर्वेदी जी से मिलने गया तब भी नन्द बाबू के दाँत नहीं थे तो पल्लव भैया ने याद रखकर अंगूर ले लिए थे.
  • एक रात चित्तौड़ शहर में रात के कोई ढाई बजे होंगे,क्या तेज़ अंधड़ चला कि हमारी तो साँस ही अटक गयी.लगा ये सब हमारे समाज की तरफ से प्रकृति रूपी मधुमख्खी के छत्ते को लगातार छेड़ने का ही प्रतिफल है शायद.खैर आज दोपहर एक रातिजगे के जीमने में जाना हुआ.वैशाख में जीमने का मतलब दाल-बाटी-चूरमा-छाछ-कढी-कच्ची केरी की नौंजी.जहां गए रात के अंधड़ का प्रतिफलन देखा कि खेत में सारे आम के पेड़ अपनी आधी से ज्यादा कच्ची केरियां गिरा चुके थे.लगे हाथ हम भी दो किलो की ठेली भर लाये.रात के अंधड़ की दिनभर चर्चा चली.और अब दिन की इन कच्ची केरियों की चर्चा तब तक चलेगी जब तक इनकी बनाई चटनी-नौंजी चलेगी.
  • पति की तनख्वाह बहुत कम है.पत्नी ब्यूटी पार्लर चलाके काम चलातीं हैं.घर किराए का है.दो कमरे वे भी ठसाठस.दो बेटे वे भी एकदम दुबले-पटक.घर में पंखा है मगर रोता हुआ चलता है.फ्रीज है,चलता भी है.टीवी है जब भी देखा बंद ही देखा.टेबले हैं.आदमियों से ज्यादा कुर्सियां हैं.खराब कम्यूटर है.चाय के कप से ज्यादा तो मोबाइल हैं.इंटरनेट नहीं है फिर भी टेबलेट तो है ही.मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी मुफलिसी में भी लोग दो-दो तोते और पालने की मुर्खता कैसे कर लेते हैं.
  • एक अच्छा साहित्यकार समूहवादी हो सकता है मगर जातिवादी नहीं हो सकता है.जातिवाद आदमी को संकुचित करता है और साहित्य एक रचनाकार को खोलता है.विश्व से जोड़ता है.आदमी को एक सिमित परिधि वाले कुए से बाहर निकालता है.मगर.खाली मंच संचालन करना और मंचों पर हल्की-फुल्की कवितायेँ पढ़ना ही 'साहित्यिक' हो जाना नहीं होता.कम से कम जाति के एक घेरे में रहना तो एक रचनाकार को 'साहित्यिक' होने से रोकता ही होगा
  • कल 'पदोन्नति में आरक्षण विरोधी मंच' का एक टेली मार्केटिंग कंपनी स्टाइल में मेसेज मिला कि शाम के समय सुन्दरकाण्ड पाठ में हिस्सा लें इससे हमारा आन्दोलन मजबूत होगा.गज़ब है भाई.वैसे मेरा मत है कि जिस तरीके से देश में आरक्षण को लेकर जातिगत वैमनस्य लगातार बढ़ता रहा है ऐसे हालात में सिर्फ और सिर्फ आर्थिक आधार पर आरक्षण ही एकमात्र सोल्यूशन है.बशर्ते कि आर्थिक सर्वे 'एररप्रूफ' हो.लाभ उसे ही मिले जिसे ज़रूरत हो.आरक्षण पर पुनर्विचार की ज़रूरत है.इस सच को कोई झुठला नहीं सकता है.
  • अकसर मेरे लिए 'सितार' का मतलब 'उस्ताद शाहिद परवेज़ साहेब' हुआ है.वैसे सितार का अर्थ कई बार पंडित रवि शंकर,प्रतीक चौधरी,गौरव मजुमदार,शुभेन्द्र राव भी होता रहा है.कई बड़े दिग्गज जिनसे मिलना संभव नहीं था उन्हें यूट्यूब पर सुनकर तसल्ली पायी.परवेज़ साहेब को कई बार सुना,सेवा की,मिला,देखा और समझा.अद्भुत हुनरमंद कलाविद.देश के नामी सितार वादक.उनका मीठा व्यवहार भी देखा और गुस्सा भी.जब वे बजाने बैठने हैं तो वे और हम आयोजन में प्रस्तुति के पहले और बाद के सारे कड़वे अनुभव भूल जाते हैं.एक अच्छे कलाकार की यही पहचाना होती है कि वे अपने प्रदर्शन में इन चीजों का प्रभाव नहीं आने देते.विश्वास नहीं हो तो यह एक राग ही सुनकर देख लीजिएगा.अच्छा नहीं लगे तो मैं शास्त्रीय संगीत सुनना बंद कर दूंगा.
  • विकास अग्रवाल को मैं बहुत सालों से जानता हूँ.स्पिक मैके,पाठक मंच,संभावना,प्रयास जैसे कई मोर्चों पर मिला,साथ काम किया.बिना मंचों के भी साथ रहे.चर्चाएँ की.नंदिनी को देखने गया तब उस पहली दफा भी विकास मेरे साथ था.सलाहें अच्छी देता है.मेहनती है.ये अलग बात है कि किस्मत इसका साथ कम ही देती है.संघर्षों के बीच बड़ा हुआ.कई नौकरियाँ की है.अच्छा और बुरा दोनों तरह का समय देखा है.बहुत आत्मविश्वासी है मगर आत्मविश्ववास की शोबाजी नहीं करता.एमएससी केमिस्ट्री है,बाद में बीएड हुआ.केमिस्ट भी रहा.सीमेंट इंडस्ट्री में भी रहा.कमोबेश घुमक्कड़.आज दिल खुश हुआ जब जाना कि उसने जनार्दनराय नागर विश्वविद्यालय उदयपुर के पांचवे दीक्षांत समारोह में पत्रकारिता एंव जनसंचार पाठ्यक्रम (बीजेएमसी) के तहत गोल्ड मैडल पाया है.विकास को असीम बधाइयां.अब कोटा ओपन से हिन्दी में स्नातकोत्तर कर रहा है.केसबाजी में भी अव्वल है.उसकी अपनी समझ है.लड़ने और चीज़ों को अंजाम तक पहुँचाने की ताकत है इस बन्दे में.दिखने में एकदम मस्त और एडवांस लगता है.है भी.कपडे मस्त पहनता है.यह सब तारीफ़ मैं इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि उसने मुझे हाल ही में एक खादी कुर्ता गिफ्ट किया है.बहरहाल विकास को फिर बधाई
  • सुकूनभरे जीवन के असल मायने क्या है समझने हो या फिर बच्चों से एक साथ मिलना हो तो सन्डे की शाम नेहरू गार्डन पहुँच जाना.लेलगाड़ी में एक बच्चे के पाँच रुपये.झुला फ्री है.चकरी भी फ्री है.खुद ही झुला लो और झूलते रहो.(हर शहर में नेहरु गार्डन तो होता ही है.)
  • कोटा फार्मी गेहूं ख़रीदे.तीस-तीस के हिसाब की भराई के आठ कट्टे,सत्रह सौ साठ रुपये क्विंटल के हिसाब से.पच्चीस रुपये क्विंटल दूकान से घर नकाई(डलवाई) के.तीन रुपये कट्टा पहली मंझिल पर डलवाई के.पहली मंझिल पर नहीं डलवाए,सोचा खाना(डिनर) खाके हम ही डाल देंगे.आठ कट्टे के हिसाब से ये चौबीस रुपये बच जायेंगे तो कल आधा किलो दूध आ जाएगा
  • मुझे जो धुनें अच्छी लगती है उनमें हमारे राजस्थान के सिरमोर कलाविद पंडित विश्व मोहन भट्ट जी की बनायी 'ए मीटिंग बाई द रिवर' है जिस पर उन्हें ग्रेमी अवार्ड मिला.इसमें मोहन वीणा के साथ राजस्थान की खड़ताल को शामिल किया गया.यह धुन सजीव रूप से मैंने पहली मर्तबा शायद गाजियाबाद में एक कन्वेंशन में सुनी थी. बताने की ज़रूरत नहीं है कि कन्वेंशन किसने ओर्गेनाइज किया था.मुझे संगीत के जितने सजीव अनुभव दिए उनमें निन्नानवे फीसदी स्पिक मैके ने ही दी थे.पंडित जी को स्पिक मैके जैसे छात्रा केन्द्रित आयोजनों के साथ ही एक बार कोटा में पब्लिक कोंसर्ट में सुना. बड़ा फरक था.वे पब्लिक कोंसर्ट में कुछ खुलकर बजा रहे थे.रचनाएं भी ज्यादा थी.शास्त्रीय होने के परफोर्में के बाहर भी कुछ सेमी-क्लासिकल टाइप.जब भी सजीव रूप से इसी धुन को सुना वहाँ खड़ताल तो खैर नहीं थी मगर बनारस के तबला वादक राम कुमार जी के साथ उनकी जुगलबंदी भी बड़ी ला-जवाब थी.
  • विश्वनाथ त्रिपाठी की आत्मकथा 'नंगातलाई का गाँव' के अंश में 'बिस्कोहर की माटी' ,प्रभाष जोशी के कॉलम 'कागद कारे' में 'अपना मालवा-खाऊ-उजाड़ू सभ्यता से' ,मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'रंगभूमि' से 'सूरदास की झोंपड़ी' और कथाकार संजीव की कहानी 'आरोहण' पढी.कल युवा कवि नीलकमल के नए कविता संग्रह को आधा ख़तम किया.बाक़ी राही मासूम रज़ा साहेब के 'आधा गाँव' के तीन सौ बीस पेज में से सौ ख़त्म हो गए हैं.लगातार पढ़ना ही एक अध्यापक और पाठक को मुसीबत में बचाता है.हाँ परीक्षार्थी को भी.

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