- हमारे वरिष्ठ सलाहकार और प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश जी की रचना 'मोहनदास' पर बनी फ़िल्म 'मोहन दास' देखी.पूरी फ़िल्म में एक रचनाकार लगातार हस्तक्षेप करता दिखा.साहित्यिक कृतियों पर हिंदी सिनेमा का निर्माण मुझमें लगातार एक आशा जगाता अनुभव हुआ है.पूरी फ़िल्म हमारे मीडिया तंत्र,राज व्यवस्था,और कोर्पोरेटी गठबंधन में गूंथे हुए भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य है.क्या गज़ब समय आ गया है आदमी की पहचान तक लोग चोरी कर लेते है.एकदम नया कोंसेप्ट लगा.एक चालबाज ज़माना आम आदमी की शराफ़त पर हँस रहा है.बड़ा विकट वक़्त है.फ़िल्म ने कई सबक सिखा दिए गोया दोस्त कब दुश्मन में तब्दील हो जाते हैं पता नहीं चलता.न्याय व्यवस्था के बिक जाने के बाद वकालात की डिग्री क्या काम की.बिके हुए मीडिया में आम आदमी के लिए तय स्पेस लगातार कम होता जा रहा है.कुलजमा फीचर फ़िल्म होते हुए भी एक डोक्युमेंट्री के माफिक खुशबू है इस फ़िल्म में.आखिर में हारी हुई शक्ल का 'मोहनदास' हमारे समाज और तंत्र के मूंह पर एक जोरदार तमाचा है.हर चीज की क़ीमत उन्होंने तय कर दी है जिनके हाथों में देश की तक़दीर आ गयी.आदमी के ज़मीर की बोली लग चुकी है.न्याय, पटवारी, दरोगा, वकील, गवाह, पुलिस सब ख़रीदे जा चुके हैं.सब के सब.जिनके पास पैसा और राजनैतिक ताक़त है वही जीने का हक़दार है. अति-यथार्थ के साथ एक हिंदी फ़िल्म.यहाँ ईमान की बात एकदम बेमानी समझे.अपराध होते देखने-सहने और फिर अखबारी आंसूं पढ़ने के साथ कमेटियों के गठन की प्रथाओं के बीच रहने और जीने के आदी हो चुके हैं हम.इंसानियत को लकवा मार गया है.एक जगह मीडिया रिपोर्टर लड़की स्वगत कथन में ठीक ही कहती है कि इस दौर में जो खुश और एशोआराम की ज़िंदगी जी रहा है मतलब साफ़ है उसने किसी के हिस्से का खाया है.वह किसी न किसी मायने में धोखेबाज है.जो सहज है अपने हक़ से वंचित है उसका चेहरा किसी लुटे हुए से मेल खाता है.बेहतर फ़िल्म है.सराही जानी चाहिए.वक़्त मिले तो ज़रूर देखें.लिंक है.https://www.youtube.com/watch?v=y_u8euCSW9g
- कालजयी कृति 'गोदान':-कुछ दिन पहले तक टुकड़ों में पढ़ा था.बचपन में कभी रोडवेज की एक स्टॉल से लेकर पढ़ा था फिर किसी को गिफ्ट भी कर दिया.पूरा पढ़ा था या नहीं ठीक से याद नहीं.बाद में इसकी कई समीक्षाएं और व्याख्यान सुने-पढ़े.खैर.हमारे दोस्त राजेश चौधरी से पढ़ने के लिए मांग लाया हूँ.अब पढ़ते हुए लग रहा है कि हम अपनी नज़र दौड़ाएंगे तो अपने आसपास बहुत सारे 'होरी' पा सकेंगे.रोज़मर्रा के जीवन से ली गयी भाषा कितनी जीवंत और सर्वकालिक साबित हो सकती है उसका प्रबल प्रमाण है गोदान जैसा उपन्यास.संवादों का एक गद्यांश भारी व्यंग्य की शक्ल में दिखा.असल में यह सिर्फ नज़र का फ़र्क है. मैं इस उपन्यास में 'गोबर' के विद्रोहपरक संवादों के साथ हूँ.इस उपन्यास को ऐसे समय में पढ़ना किसी भी पाठक पर ज्यादा बड़ा असर कर सकता है जब भूमि अधिग्रहण बिल पर बहस छिड़ी हुई हो.अधिकाँश संवाद आज भी हमारे दोगले समाज पर कटाक्ष करते दिखे हैं.
- यूट्यूब पर राज्य सभा द्वारा बनाया गया फणीश्वरनाथ 'रेणु' पर कभी प्रसारित एक वृतचित्र देखा तो दंग रह गया.क्या गज़ब के तथ्यों का खुलासा हुआ.https://www.youtube.com/watch?v=LjhdAAH91L8
- कितनी अजीब बात है कि एक आदमी जब एक संस्था बनाता है तो बिना किसी शाखा और सदस्यों के वो सीधे ही स्वघोषित 'अंतर्राष्ट्रीय संस्थापक' बन जाता है.कहीं कहीं तो 'सचिव/सह सचिव/अध्यक्ष' जैसे पदाधिकारी जो संस्था के संचालन के लिए एक उत्तरदायित्व को नियुक्त होते रहे हैं खुद को ही 'संस्था' समझने लगते हैं.इन सभी मामलों में परेशानी तब आती है जब ये लोग अपने विचारों में फेरबदल की गुंजाईश छोड़े बगैर ही जड़ हो जाते हैं.इस दौर में सबकुछ संभव है मगर किसी 'जड़बुद्धि' को समझाना बेहद मुश्किलाना काम है.एक सुबह हमारे गुरुवर सत्यनारायण जी व्यास से पौन घंटे की अनौपचारिक मुलाक़ात हो पायी.मेरा मानना है कि जीवनगत ग़लतफहमियाँ दूर करने और उनका शोधन करने के लिए हर एक शहर में 'सत्यनारायण व्यास' होना नितांत ज़रूरी है.व्यास जी ने कम वक़्त में बहुत सारे सूत्र दे दिए.कुछ ही याद रहे.मैं और सुनना चाहता था हमेशा की तरह.एक वादा ज़रूर हुआ जिसमें निकट भविष्य में उनके कुछ लम्बे इंटरव्यू रिकोर्ड करना तय हुआ.उन्होंने कहा जो लोग शोध करते हुए सिर्फ तथ्य जन रहे हैं वे ग़लतफहमी में हैं कि जब तक शोध के सामाजिक निहितार्थ न हो और उनका कोई जन समुदाय के लिए उपयोग न हो, सब बेकार है.जो लोग तथ्य को ही सत्य समझ रहे हैं ग़लत दिशा में जी रहे हैं.तथ्य तो कल बदल जायेंगे जब कोई नया आदमी दस-बीस क़िताबें पढ़कर नए आंकड़े जन देगा.आखिर में उन्होंने कहा आँखें खुली रखो,जड़ मत बनों,सबको सुनो,अपनी भी रखो.लिहाज में अपने विचार दबाकर जीना भी क्या जीना है.सभा-संगत वही करो जहां खुले विचार के लोग आए.मूर्खों की सभा में वक़्त जाया करने से बचना चाहिए.
25 फ़रवरी, 2015
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