यह संस्मरणात्मक आलेख हाल ही में स्पिक मैके के मुख पत्र 'सन्देश' में प्रकाशित हुआ है.वहीं से साभार यहाँ छाप रहे हैं.
बहुत कठीन है डगर पनघट की
स्पिक मैके आन्दोलन केन्द्रित माणिक का आलेख
बीती सदी के लगभग उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ छात्र सहभागी सांस्कृतिक आन्दोलन
स्पिक मैके सन दो हजार पंद्रह के साल में प्रवेश करने के साथ ही अपनी उम्र के
अड़तीसवें वर्ष में आ पहुँचा है। लंबा अरसा बीत गया और ढेरों यादें इकट्ठा हो गयी है। इस यात्रा के राष्ट्रीय संयोजक पद्मश्री डॉ. किरण
सेठ से हुयी कई अनौपचारिक मुलाकातों के हासिल में जाना कि इस लगातार बदलते वक़्त में
यह आन्दोलन अपने तय किए हुए उद्धेश्यों से आज भी बहुत दूर ही है मगर फिर भी कई तसल्लियाँ हमारे साथ हैं। सुखद बात यह भी है कि इस आन्दोलन के जादू में आकर आज भी लाखों साथी इस आन्दोलन के खम्बे बन इसे संचालित कर ही रहे हैं। अपनी गतिविधियों में स्पिक मैके पहली दफा तो महज कलावादी आन्दोलन ही कहा जाता रहा है मगर जबसे इसमें साहित्यिक, रंगमंचीय, पर्यावरणीय और सामाजिक जनजागरूकता से सम्बद्ध गतिविधियाँ बढ़ने लगी तो साथियों की प्रतिक्रिया और रुझान करवट लेने लगे। अरुणा रॉय, फ़िल्मकार अद्दूर गोपालकृष्णन, यूं.आर. अन्नंतमूर्ति और श्याम बेनेगल आए तो सार्थकता बढ़ती नज़र आयी। हबीब तनवीर साहेब जैसों के जुड़ने से आन्दोलन सतरंगी होने लगा। इन साढ़े तीन दशकों में कई प्रतिबद्ध कलाकार और साथी आए और चले गए मगर आन्दोलन अबाध चलता रहा।मेरा मानना है कि इस जादू का एक बड़ा कारण सिर्फ़ इसका रीड विचार ही ठहरता है वो है निस्वार्थ स्वयंसेवा का भाव। अचरज की बात यह कि आज भी हिन्दुस्तान के साथ ही दुनिया के कई देशों में फैलते स्पिक मैके में नियमित मानदेय पर काम करने वालों की संख्या दस भी पार नहीं कर पायी है। सभी जुड़े हुए साथी अपने बूते समय, धन और जीवन फूंक रहे हैं। तसल्ली है तो सिर्फ इस बात कि आज देश के कई बड़ी पहचान वाले और कुछ कम लोकप्रिय मगर गंभीर कलाकारों को हम महानगरों सहित छोटे कस्बाई इलाकों तक ले जा पाए हैं। यह जानते हुए भी कि बहुत कठीन है डगर पनघट की एक अनुमान के अनुसार सन दो हजार बीस तक हम देश के प्रत्येक बच्चे तक पहुँचने का सपना पाले हैं।
काम को ठीक करने के लिहाज से इस आन्दोलन का भी अपना संस्थागत ढांचा है मगर दूजी संस्थाओं की तरह यहाँ पदों की कोई धोंस और प्रोपेगेंडा नहीं है। अखबारी कतरनों में नाम छपाने की बीमारियाँ नहीं है। खुद को प्रोजेक्ट कर आन्दोलन को सिर्फ साधनभर समझने की तरकीबें यहाँ काम नहीं आ सकती है। इस गैर राजनैतिक आन्दोलन की खुशबू ही यही है कि आप बिना किसी औपचारिकता के साथ आएं, जुड़े और जहां भी अपने आपको फिट समझते हैं सेवा करें। निष्काम कर्म। बिल्ले टांगने, सदस्य बनने-बनाने और पदाधिकारी होने पर शपथ ग्रहण जैसी पोंगापंथी हरक़तों से यह आन्दोलन अभी तक तो दूर ही है। बाक़ी बड़े अभियानों और ट्रस्टों की तरह यहाँ इसके संस्थापक आचार्य से मिलने के लिए अपोइन्टमेंट के चोंचले नहीं है। हमारे आन्दोलन के मूल विचारक किरण सेठ किसी भी शहर में आते हैं तो बड़े बड़े होर्डिंगछाप प्रचार के मायाजाल में लोगों को उलझाते नहीं हैं। यहाँ कम से कम औपचारिकताओं के बीच बड़े सहज भाव से काम करने की गुंजाईश रहती है। चित्तौड़गढ़ में सन उन्नीस सौ तिरानवें से स्पिक मैके अपने तरीके से जिले में एक वातावरण बनाने की जद्दोजहद में संचालित है।ये कई नगरों की कहानी हो सकती है जहां आन्दोलन के बेनर तले स्कूली विद्यार्थी बहुत कम उम्र में देश के नामी कलाविदों को जान, देख और सुन पा रहे हैं। हमें यही खुशी है कि हमारी असल धरोहर से ये विद्यार्थी समय रहते ही एकमेक हो रहे हैं।
ग्लोबलाइजेशन के दौर में जहां सबकुछ बहुत तेज़ी से बदलता जा रहा है हम इस आन्दोलन में भी आ रही तब्दीलियाँ देख रहे हैं। जनमानस की हाल की जबरन ईजाद की गयी इच्छाओं के बीच सुकूनभरा संगीत और विरासत प्राथमिकता में बहुत पिछे ठहरती नज़र आती है। आज कलाकारों के साथ ही स्कूली प्रबंधन कमेटियों के नज़रिए भी बदल गए हैं। हमें लग गया कि इसी माहौल में कुछ करना एक बेहतर संघर्ष होगा। इधर जीवन और कलागत क्षेत्रों में भी बाज़ार ने तेज़ी से घुसपैठ की है। स्पिक मैके के आयोजन भी अपने मूल स्वरुप में अनुभव या संगत के मानक से कुछ निचे खिसके हैं। हम उन्हें सिर्फ कार्यक्रम या इवेंट बनने से रोकने की जुस्तजू में जी रहे हैं। ऐसे कातिल वक़्त में आन्दोलन में जब कुछ गंभीर सोच विचार के साथी आ जुड़ते हैं तो काम करने का अंदाज़ बदल जाता है। आप भी इस बात से सहमत होंगे कि सामूहिकता की खुशबू का अंदाज़ विलग ही है। स्पिक मैके जैसी और भी संस्थाएं होंगी जिनमें हमें हमेशा नयी पीढ़ी और नयी ऊर्जा की ज़रूरत महसूस की जाती है। यहाँ भी आवश्यकता अनुभव हुई है। नए दौर के युवा का केंद्र सिर्फ करिअर हो गया है और मजेदार बात यह है कि हमारे देश में करिअर की कई बेतरतीब परिभाषाएं हैं जो युवाओं को दिशाभ्रमित कर संकोचित मानसिकता से भर दे रही है। कोई स्वकेंद्रण की बीमारी से बाहर नहीं आ पा रहा है। इस घुप्प अँधेरे और मुश्किल समय में चिंता और चिंतन के कई मुद्दे हो सकते हैं, खैर हमने स्पिक मैके के बड़े फलक पर काम और दिशा को सुधारने के बजाय अपने इलाके में संचालित गतिविधियों को ठीक करने का जिम्मा उठाया और सफल भी हुए। चित्तौड़गढ़ में अपने बीते एक साल के अनुभव की माने तो हमें अनिरुद्ध, भगवती लाल सालवी, मुकेश शर्मा, सांवर जाट, संयम पुरी, मनीष भगत, पूरण रंगास्वामी, दीपा स्वामी, राहुल यादव, जिन्नी जोर्ज जैसी साथी मिले तो लगा आन्दोलन जी उठा है। ऐसे युवा बेहतर समझ के प्रतीक के रूप में याद किए जाएंगे। मुझे बारबार लगता रहा कि अब ऐसे जवान साथी लुप्तप्राय प्रजाति ही समझी जाए जो निजी स्वार्थ से बहुत दूर समाज के लिए कुछ करने का सपना देखती है। यहाँ मेरा भ्रम टूटा है और अपने आपको ठीक करने की यह प्रक्रिया मेरे लिए सुखद ही रही। प्रौढ़ होते कन्धों में आशा जग उठी। हमें एक बार फिर लगा कोई भी आन्दोलन हो उतार-चढ़ाव आते जाते रहते हैं। आज संक्रमण है तो कल यह भी टल ही जाएगा।
स्पिक मैके छाप संस्कृति में मैंने बीते डेढ़ साल में एक नया सकारात्मक बदलाव देखा है वह यह कि कोटा राजस्थान के एक पुराने साथी अशोक जैन ने सरकारी स्कूलों के वंचित बच्चों के लिए वर्कशॉप डेमोस्ट्रेशन नाम का एक नया मोड्यूल तैयार किया है। पूरी तरीके से सदैव नवाचारी सोच के प्रतीक अशोक भाई के इस मोड्यूल की बदौलत बीते अठारह माह में देशभर के सैकड़ों सरकारी स्कूल के विद्यार्थी लाभान्वित हुए हैं। स्पिक मैके जहां प्रत्येक कार्यक्रम में अपने स्थानीय दस हजारी खर्चों के कारण अभी तक सिर्फ निजी शिक्षण संस्थाओं में ही अपनी गतिविधियाँ संभव कर पा रहा था इस मोड्यूल के आने के बाद ग्रामीण और अब तक बचे हुए राजकीय स्कूलों तक भी पहुँच बना पाया है। गौरतलब है कि यह मोड्यूल पूरी तरीके से स्पिक मैके ही अपने खर्चे से चला रहा है, हाँ एक सच यह भी है कि किसी-किसी राज्य में स्थानीय राज्य सरकारों ने भी इसके प्रभाव को देख और प्रेरित होकर आर्थिक प्रोत्साहन दिया है। ग़रीब और पिछड़े बच्चों के बीच लगभग बहुत कम संसाधनों के साथ स्पिक मैके की ये कार्यशालाएं रंग लाने लगी। एक घंटे की इन संगतों में विद्यार्थी शुरुआती आधे समय हमारी सांस्कृतिक नृत्य और गायन-वादन परम्पराओं की आधारभूत बातें सीखते नज़र आते हैं तो बाकी हिस्से में वे उसी कला का प्रदर्शन भी देख-सुन पाते हैं। इस प्रयोग में चित्तौड़गढ़ के मोर्चे को स्वयंसेवक जे.पी.भटनागर और उनके साथी इंदिरा डांगी, पूर्णिमा मेहता, सत्यनारायण शर्मा, देवकीनंदन वैष्णव ने बहुत कामयाबी के साथ निभाया है। एक कलाकार एक ही शहर में छ दिन रहकर रोजाना दो कार्यशालाएं करता है, इस तरह आन्दोलन के साथियों के साथ एक सप्ताह का यह साथ लंबा और गहरा प्रभाव छोड़ने लगा। इस मोड्यूल के आने के पहले तक हमने सोचा नहीं था कि हम कभी भदेसर, राशमी, कपासन, बेगूं, गंगरार, निम्बाहेड़ा जैसी बहुत छोटे और लगभग अछूते हिस्सों तक पहूँचने की अपनी ख्वाहिश पूरी कर पायेंगे। इस मोड्यूल के ज़रिये हम देश के नामी कलाकारों के सुयोग्य शिष्यों और प्रतिभावान कलाकारों को आमंत्रित कर पाए हैं।हमें विश्वास होने लगा कि हम देश के बहुत पिछड़ों तक भी पहुँच सकेंगे।
साहित्य और संस्कृति के हिसाब से अपने गौरवशाली अतीत के साथ चित्तौड़गढ़ हमेशा से ही सम्पूर्ण भारत के कलाकारों को आकर्षित करता रहा है। नगर में दूजी संस्थाओं से विलग यह आन्दोलन अपनी करनी के अनुसार सिर्फ स्कूल-कॉलेजों तक ही सिमित रहा है। हमारे केंद्र में केवल विद्यार्थी ही रह सके। चित्तौड़गढ़ में स्पिक मैके अपने आगाज़ के बाईस साल पूरे कर चुका है और इस सफ़र में हमने पाया कि कई नामचीन कलाकार इसी आंदोलन के बूते यहाँ तक आ सके हैं। यह कोई घमंड का विषय तो नहीं मगर एक तसल्ली का सबब तो हो ही सकता है। कई कलाविद तो दुबारा, तिबारा और चौबारा भी आ सके हैं। जहां तक बच्चों पर स्पिक मैके के प्रभाव की चर्चा हैं तो हमने पाया कि जिन दस चयनित
संस्थाओं में हम लगातार प्रस्तुतियां कर रहे हैं और वहाँ का प्रबंधन भी लगातार पैसा खर्च कर रहा
है वहाँ विद्यार्थी बहुत तेज़ी से हमारी शास्त्रीय और लोक कलाओं को सोचने-समझने लगे हैं। स्पिक मैके अपने सिमित संसाधनों और प्रायोजकीय सहयोग से हमारी युवा पौध को बहुत कुछ देता रहा है। हमें विश्वास है कि यह एक वातावरणीय फेक्टर के तौर पर उन छात्रों के व्यक्तित्व में कभी ज़रूर झलकेगा।
भारतीय जनमानस का उपभोक्तावादी नज़रिया और मनोरंजन केन्द्रित जीवन हमें कई बार हतोत्साहित तो करता ही है मगर फिर भी हम अपने बारीक उद्देश्यों के साथ गतिमान है। जिन डिटेल्स के लिए हमारा आन्दोलन संचालित है वो यही है कि हम एक घंटे वाली प्रस्तुतियों में कभी भी कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी और गोटीपुआ तो सिखा नहीं पायेंगे मगर दर्शकों में लम्बी तपस्या के बाद का सुखद प्रतिफल का कोंसेप्ट ज़रूर रोप पायेंगे। अतिथि कलाकारों की सेवा और आयोजनों के प्रबंधकीय अनुभव हमें कम उम्र में भी बड़ा बनाते हैं। विद्यार्थी जीवन में ही हिन्दुस्तान और विश्व की दूसरी संस्कृतियों के उजले पक्षों से परिचित होने का यह संस्था एक बेहतर माध्यम लगी है। प्र्रस्तुतियों में सारा जिम्मा विद्यार्थी ही निभाते हैं तो लगता है यह पीढ़ी हमारे कला मूल्यों को कुछ करीब से आभास कर पा रही है। डगर बहुत कठीन है मगर तय किए हुए उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अगर हम कुछ सार्थक कर सकें तो हमारे सामाजिक मूल्यों का मान बचा रहेगा।
आखिर में सुनहरा राजस्थान जैसे समाचार पत्र के लिए हमारे वरिष्ठ साथी नटवर त्रिपाठी के कहे पर लिखे इस आलेख में अपने सभी पाठक दोस्तों को यही कहने का मन है कि स्पिक मैके बहुत खुबसूरत यात्रा है जिसने मुझे एक आम आदमी से एक स्वयंसेवक में तब्दील किया है। जीवन जीने का सलीका मैंने बहुत हद इसी आन्दोलन में सिखा है। खुद को पिछे छिपा अपने युवतर दोस्तों को आगे बढ़ाने और मौके सुझाने का हुनर मैंने यहीं पाया। अपने आसपास के लगातार आकर्षित करते भौतिकतावादी युग को मैंने चिढ़ाते हुए यहाँ अपने मन का ही किया है। आन्दोलन में तेरह वर्षों की मेरी अपनी यात्रा में जितने बुजुर्ग दोस्त दिए उतने ही युवा भी परोसे हैं। कई कलाकारों का निजी सानिध्य कभी भूल नहीं सकता। कार्यक्रमों के आयोजन कर युवाओं को इतने यादगार तोहफे देने का जो सुकून मैंने यहाँ पाया बाकी कुछ दुर्लभ ही लगा। समय हमेशा एक सा नहीं रहा कभी मोहभंग भी हुआ मगर फिर लौट आया। स्वहित को नज़रअंदाज़ करते हुए सामूहिक चिंता का भाव अपनाना मुझे स्पिक मैके ने ही सिखाया। आज भी किस्से कहने बैठे तो घंटों गुज़र जाए इतना वक़्त इस आन्दोलन को दिया मगर इस बात का गुरुर कभी नहीं पाला। अपनों से कम उम्र या हमउम्र के साथ काम करने और आन्दोलन के विचार पर चर्चा करने, पोस्टर छपवाने, पर्चे बांटने, पेम्पलेट चिपकाने, बेनर्स टांगने जैसे काम करने मात्रा की खबर ही कितनी आशाजनक और स्फूर्तिदायक हो सकती है यह बात कोई आंदोलनकर्मी ही जान सकता है।
शुक्रिया स्पिक मैके का जिसने मुझ जैसे हिन्दी-भाषी
को कई दक्षिण भारतीय कलाकारों को सुनने-देखने के लिए न खाली आमंत्रित किया बल्कि शुरुआती
दौर में तो जबरन बिठाया भी। याद आता है कि पहले पहल तो शास्त्रीय नृत्य भाता था,
फिर धीरे-धीरे
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के करीब आया। जब मुझे कर्नाटकी गायन की संगत का मौक़ा हाथ लगा तब जाना कि यह भी अद्भुत संसार है। मैं सहसा अपने ही देश के एक बड़े
भूभाग से अपनापा अनुभव करने लगा। अलगाव की सीमाएं टूटती नज़र आयी। मैं तभी से समझ
पाया कि मैं एक राजस्थानी होने के साथ ही भारतीय भी हूँ।यह भारतीयता मुझे संगीत और
नृत्य की इन्हीं सभाओं-संगतों से मिली। दक्षिण भारत के कई दिग्गज और तपस्वी
गायकों/वादकों को सुन चुका हूँ। कई बार भरतनाट्यम, मोहिनीअट्टम और कुड़ीयट्टम का नाच
देखा है। कभी सोचा नहीं था कि पंचवाध्यम को जानूंगा। यह भी तो नहीं सोचा था कि मेरे ज्ञान
में अम्मानुर
माधव चाक्यार सरीखे टेड़े शब्द भी शामिल होंगे। यह तो बिलकुल नहीं जाना था कि हम टुकड़े,
परण, तिहाई करते-करते पल्लवी,
त्रिभंगी,चौक और
तिल्लाना जैसी शब्दावली से भी एकमेक हो जायेंगे। आज भी जब मृदंग सुनता हूँ तो उसकी
थाप को तबले से ज्यादा प्रभावी समझने लगता हूँ। हालाँकि इस उत्तर भारत ने मुझे कथक
की प्रस्तुतियां ज्यादा भेंट की है फिर भी झुकाव दक्षिण की तरफ बढ़ता दिख रहा है। यह
नए को समझने और उसे पर्याप्त आदर देने की आदतों का नतीजा कहा जा सकता है।
कलामंडलम गोपी से लेकर कलामंडलम अमलजीत तक का कथकली
देखा है। यादों में बहुत कुछ सहेज लिया है उसी को तरोताज़ा करने के लिए कभी-कभार
स्पिक मैके के अंतर्राष्ट्रीय उत्सवों में कूद पड़ता हूँ। यही रूचि मुझे मार्गी मधु,
मार्गी विजय कुमार,
कपिला वेणु,
रमा वैद्यनाथन को
साथ लेती हुयी सुदूर दक्षिण में ले जाती है। कई बार की यात्राओं और संगीत सभाओं
में अगर मैं तब की अपनी संकुचित सोच के चलते नहीं जाता तो शायद कभी भी डॉ. एम.बालमुरली कृष्णन की साधनापरक आवाज़ सुन नहीं पाता। प्रो. टीवीएस शंकरनारायणन को
कैसे सुन पाता जो आज हमारे कर्नाटकी गायन शैली के एक बड़े आयकॉन हैं। यदि
इन बेतरतीब रुचियों का झमेला नहीं पालता तो मैं स्वामी त्यागराज जी की एक भी रचना
अपने कानों में नहीं उंडेल पाता। प्रादेशिक संकीर्णता ने ही मुझे बाँध दिया होता
तो यक्षगान नहीं देख पाता। मैन्डोलिन, घटम, वायलिन, चित्र वीणा, मीराव, एडक्या तो कभी सुन ही नहीं पाता।
मैंने जितना ओडिसी और भरतनाट्यम देखा है उतना ही
मयुरभंज छाऊ और गैर नृत्य देखा है। जितना कथक और मणिपुरी समझा है उतना ही घूमर और
घरबा भी। जितना कुचिपुड़ी से प्रभावित हुआ उतना ही गोटिपुआ से भी.खुद को मैं जितना
कथकली के प्रति झुका हुआ पाता हूँ उतना ही खुल को नार्थ ईस्ट के बम्बू डांस पर
फ़िदा होते अनुभव किया है। बिहू, सिद्धिगोमा, छत्तीसगढ़ी नाचा हमेशा जेहन में रहते हैं। बीते तेरह सालों
में सौ से भी ज्यादा कलाकारों के साथ संगतें की है। कई आयोजन, कई जाजमें, कई संचालन, कई इंटरव्यू। कइयों का प्रभाव मुझ
में है। कई किस्से हैं जो मुझे इन जानेमाने नर्तकों और नृत्यांगनाओं ने दिए
हैं। शास्त्रीय और लोक दोनों के अपने-अपने मायने हैं। दोनों को अलग-अलग और बराबारी
के साथ देखा जाना चाहिए। एक दूजे की कोस्ट पर हम उनकी तुलना नहीं करें तो बेहतर
होगा। शास्त्रीय का अपना नियम-क़ानून हो सकता है तो लोक के अपनी खुशबू। जब भी
शास्त्रीय नृत्य सत्रीय याद आता तो लोक की चर्चा चलते ही कालबेलिया, भवाई, तेरहताली और चरी नृत्य
भी सायास ही याद हो आते हैं। मतलब यह हुआ कि यह विश्व नृत्य दिवस भारतीय सन्दर्भों
में मेरे अनुसार जितना कथक नृत्यांगना शास्वती सेन और मोहिनीअट्टम की डॉ. दीप्ती
ओमचेरी भल्ला का है उतना ही कालबेलिया की गुलाबो का भी है।
कितने-कितने बड़े नाम है जिन्हें बहुत करीब से जाना
और देखा। ओडिसी के केलूचरण महापात्र और गुरु गंगाधर प्रधान से लेकर सोनल मानसिंह से
होते हुए कविता द्विवेदी और आरुशी मुद्गल जैसी नवोदित और मेहनती कलाकारों तक की
यात्रा की है। सफर बड़ा लंबा रहा.कथक का ज़िक्र करें तो हमने सितारा देवी जी से होते
हुए बिरजू महाराज से कथक के दर्शन किए हैं। प्रेरणा श्रीमाली जी, राजेंद्र गंगानी जी, मालोबिका मित्र जी, उमा शर्मा जी सरीखे कई
बड़े नाम है जो आज कथक की विरासत में याद आ रहे हैं। हर एक नृत्य की अपनी लम्बी
परम्परा और कई-कई घरानों की खुशबू है इस मुल्क में। भरतनाट्यम की बात छिड़ते ही
मल्लिका साराभाई, गीता चंद्रन, मालविका सर्रुकाई, रमा वैद्यनाथन जी, रंजना गौहर जी से लेकर दक्षिणा वैद्यनाथन तक चर्चा होती है।मतलब मैंने इस आन्दोलन के बूते ही शास्त्रीय और लोक दोनों का एकसाथ दर्शन किया है।शुक्रिया स्पिक मैके।
माणिक,संस्कृतिकर्मी,चित्तौड़गढ़
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