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14 अक्तूबर, 2019

बसेड़ा की डायरी(July to October 2019

विद्यार्थी बबली का राजस्थान सरकार की प्री बीएसटीसी 2019 परीक्षा में दो वर्षीय टीचर्स ट्रेनिंग हेतु चयन हो गया है।बधाइयां।जानता हूँ यह आपकी नज़र में बड़ी बात नहीं है मगर मैं जिस इलाके के जिन पिछड़े परिवारों ले बीच काम कर रहा हूँ वहां यह कमाल ही है।एक सपना पूरा हुआ।दूजा सपना बबली को अध्यापिका के रूप में देखना है।
9 अगस्त 2019
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अपनी माटी आश्रम' से नई ख़बर: राजस्थान के ठेठ प्रतापगढ़ ज़िले के देहाती गाँव बसेड़ा से ममता मीणा का चयन इंटिग्रेटेड बी.ए. बी.एड. हेतु वर्ष 2019 की प्रवेश परीक्षा में अंतिम रूप से चयन हो गया है.राजकीय आदर्श उच्च माध्यमिक विद्यालय बसेड़ा की साल 2019 में ही कक्षा बारहवीं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण बालिका ममता अब झुंझुनू के मलसीसर तहसील स्थित महारानी बालिका महाविद्यालय (घासीराम का बास, रामपुरा) अलसीसर में चार साल तक अध्ययन करेंगी.बाक़ी दुनिया के लिए यह बहुत सामान्य ख़बर है मगर इस आदिवासी बेल्ट के लिए यह एक बदलाव का संकेत है.(बसेड़ा बदल रहा है.ममता और विद्यालय परिवार को बधाई अग्रिम विद्यार्थी जीवन के लिए शुभकामनाएं
13 अगस्त 2019
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दीपक के घर जाना सुखद रहा।मैं शिष्यों के घर इसलिए जाने का प्रयास करता रहता हूँ क्योंकि मेरे भीतर बहुत सारे संस्कार/लख्खण का एक बड़ा कारण यह है कि मेरे बचपन में मेरे गुरुजन मेरे घर आते थे।
25 अगस्त 2019
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बसेड़ा स्कूल में कक्षा 11 और 12 के मेरे हिंदी के स्टूडेंट्स के साथ 40 मिनट की विशेष चर्चा की।टेंशन फ्री सेटरडे।पेड़ के नीचे ज़मीन पर नेचुरल अंदाज़ में।हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में पद्मा तलवल्कर जी का एक तराना सुनाया फिर कुछ पढ़ाई से पहले के ध्यान या मेडिटेशन पर चर्चा हुई।फिर शुद्ध मेवाड़ी में 25 मिनट संवाद हुआ।घर परिवार की बातचीत हुई।जीवन की उलझनों पर कुछ विचार साझा किए।मुझे बड़ा आनंद आया।हमारे बीच की आत्मीयता बढ़ी।बच्चों को कुछ और समझ पाया।अगले सेटरडे फिर इसी विचार को आगे बढ़ाऊंगा।बाक़ी आनंद।
7 सितम्बर 2019
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विद्यार्थियों को केवल पुस्तक,चॉक और ब्लैकबोर्ड के भरोसे कक्षा के भीतर ही पढ़ाना बच्चों में बोरियत भरता है।किताबी कीड़े बनाने की इस प्रक्रिया में हम विद्यार्थियों में छिपे अभिनेता,चित्रकार,खिलाड़ी,खिलौना पसंद छात्र और खुले आकाश सहित हरियाले आँगन में गुरुजी के साथ बातें करने के अवसरों का सत्यानाश करते हैं।
28 सितम्बर 2019
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मैं अध्यापक हूँ इसलिए खुद की जिम्मेदारी पर केंद्रित बात करूंगा।'परिवार ही विद्यार्थी को संस्कार देता है।संस्कारों की पहली पाठशाला माँ होती है।' ऐसे वाक्य सरका कर मैं अपने जिम्मे से बच नहीं सकता हूँ।संस्कार असल में आचरण से आते हैं।अध्यापक में जब तक संजीदगी और गंभीरता बची हुई है या यूं कहें कि जब तक उसमें आचरण की आँच रहेगी तब तक स्कूली विद्यार्थी में संस्कार फलने-फूलने की गुंजाइश ज़िंदा रहेगी।

अक्सर अध्यापक बच्चों के बीच गीत,कविता,संगीत,नाच-गान,चित्रकारी,खेल,भ्रमण,कहानी पाठ,अभिनय आदि पर केंद्रित गतिविधि नहीं करते हैं।ये गतिविधियां गुरु द्वारा दुहराव-तिहराव के कारण बोरिंग घोषित कर दी जाती है मगर बच्चों की ज़िंदगी में अगर यह घटित हो तो वह पहला अहसास होता है।किताबों से इतर अध्ययन-अध्यापन के ऐसे दिन वाली रात में बच्चे आसमान से बातें करते हैं।उनके पाँव उस रोज़ ज़मीन से दो अंगुल ऊपर होते हैं।यह सच अध्यापक जितना जल्दी स्वीकार लें।भला होगा।

29 सितम्बर 2019
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गांधी पर बात करना आसान है मगर गांधी हो जाना बेहद मुश्किल।गांधी जी अपने जीवन में इतनी गुंजाइश हमेशा छोड़ते थे कि उनसे हज़ार हज़ार असहमतियों के बावजूद कोई उनका दुश्मन नहीं बन पाता था।गांधी भी आम इंसान की तरह ही वक़्त के साथ लिखते,पढ़ते,हारते-जीतते हुए तमाम असफलताओं के पार जाकर परिपक्व हुए।अपने जीवन के पहले हिस्से से बाद वाले आधे हिस्से में गांधी बहुत हद तक बदल चुके थे।विचारों में समय के साथ परिमार्जन ही प्रगतिशीलता है।उनकी आत्मकथा में वे पर्याप्त रूप से बेबाक अनुभव हुए।उन्हें सिर्फ 'स्वच्छता अभियान' तक समेटकर रखना सुंदर बात नहीं है।वे असल में मन की गंदगी साफ करने के हिमायती हैं।गांधी को दोस्त बनाकर बात आगे बढ़ाएंगे तो नफे में रहेंगे।बाक़ी उनके वक़्त में उनके साथियों के ही हृदय परिवर्तन कर देने की ताक़त के किस्से पढ़िएगा,अचरज में पड़ जाएंगे।मैं इसीलिए उनका फेन हूँ।'विश्व में भारत का मतलब गांधी है' सोचिएगा ऐसा क्यों माना जाता है?मैं भी सोचता हूँ।आप भी उत्तर ढूँढ़िएगा।यही संवाद की संस्कृति है जिसे ज़िंदा रखना हमारी जिम्मेदारी है।


गांधी जी ने दूजों को गले लगाना सीखाया।जब भी आचरण की बात होगी वे सार्थक होंगे।जब भी मानविकी की चर्चा चलेगी गांधी याद आएंगे।हिंसा का जवाब प्रेम से देना गांधी ही सीखा सकते हैं।कई संदर्भों में गांधी अम्बेडकर होना चाहते थे और अम्बेडकर गांधी।भगत सिंह और गांधी के बीच वैचारिक मतभेद के बावजूद वे एक दूजे का 'इंसान' होने के तौर पर सम्मान करते थे, ऐसी संस्कृति को मैं बहुत मिस करता हूँ।गांधी ने बमुश्किल आधा दर्जन किताबें लिखी और उन पर हज़ार से भी ज्यादा किताबें लोगों ने लिखी।गांधी ने शायद कुल जमा 6 देश घूमे होंगे मगर आज लगभग 200 देशों में गांधी की मूर्तियां हैं।असहमत होना अच्छा है, ऐसे में संवाद की गुंजाइश ज़िंदा रहती है।बाक़ी गांधी जी सहित हर इंसान में गुण के साथ अवगुण होते ही हैं।एक और बात निंदा से कोई बच नहीं सकता।गांधी जी भी नहीं।इस मौके पर मैं मूल किताबों को पढ़े बगैर आपस में नफ़रत उगाते लोगों की वाट्स एप यूनिवर्सिटी के सत्यानाश की कामना करता हूँ।
2 अक्टूबर 2019
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हमारी स्कूल में एक सोनू है जिसकी फितरत में कक्षा के बाहर का जीवन ही लिखा है।माड़साब सहित पौधों को पानी देना।कमरों के ताले जुड़ने से लेकर जाले साफ करना।इसी स्कूल में एक जूही है।'गुरुजी का कमरा मैं ही खोलूंगी,दोपहर का लंच मेरे अलावा कोई नहीं परोसेगा।ऑफिस का ताला मेरे जिम्मे।' ऐसी ही वाक्य दोहराती है।पढ़ना कम,बोलना ज्यादा।बाक़ी विद्यार्थियों से तिगुने जिम्मेदार।ज्यादा भावुक।नाटकीयता से कोसों दूर एकदम बच्चे।देश के हर स्कूल में जूही और सोनू मिल जाएंगे।इनका दिमाग कम चलता है दिल ज्यादा।समाज को सोनू और जूही की आज उतनी ही जरूरत है जितनी इन्हें समाज की।अफसोस अध्यापकों की परिधि में से ऐसे बच्चे गायब हैं।ऐसों का मापन वैसे ही किया जाता है जैसे आर्थिक गणना में माँ को गृहिणी बताकर उसकी आय सिफ़र दर्ज की जाती है जबकि एक सच यह है कि घर माँ के बूते चल रहा है और स्कूल सोनू/जूही पर टिका हुआ है।
4 अक्टूबर 2019
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पढ़ाते-लिखाते और संवाद करते वक़्त ज़ेहन में हमेशा यह ज़रूर याद रखता हूँ कि इन स्कूली बच्चों की वज़ह से ही हिंदी वाले माड़साब का चूल्हा जल रहा है।स्कूल में बच्चे हैं तो माँ-पिताजी की दवाई का जुगाड़ है।स्कूल में हिंदी मजबूत होगी तभी माड़साब की अनुष्का मन-माफ़िक पढ़-लिख सकेगी।ख़बर है कि बबली और ममता को राह मिल गई, यही गुरुजी के लिए पद्म अलंकरण है। टीना सहित लाली और रानू में मास्टरनी बनने का पौधा रोपने से गुरुजी की गिरस्ती सकुशल है। गुणवंत या अर्जुन की वर्धा से आई फेसबुकी और वाट्स एप छाप चिट्ठियां सुकून देती हैं तो ग्यारहवीं के बच्चों पर नवाचार करने की ताकत अठगुणी हो जाती है। दीपक और कारू को दिशा मिलेगी, आस ज़िंदा है। जब से जाना कि 'गांधी जी को भी अपने समकालीन सहित मित्रों की उपेक्षा झेलनी पड़ी और तब भी उनका आत्मबल एक इंच तक न डिगा।' बस मेरा मनोबल उसी पल से आसमां छू गया। सोना,जीवन,सुनीता,ममता सहित ग्यारहवीं के बच्चों, उड़ान के लिए रेड्डी रहो।
5 अक्टूबर 2019
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आतिश सरपंच बनना चाहता था और विपुल का मन टेंट हाउस संचालन में रमता था।बबली को कॉलेज शिक्षा बुला रही थी और अर्जुन के दिल में आरएएस बनने की ख़्वाहिश उग आई थी।ऋषिका,टमा और काजल आजीविका कौशल ट्रेनिंग सरीखा कुछ ले रही थीं।एक विपुल और है जो खुद से ही जंग लड़ रहा था।चैनराम की ख़बर नहीं आई।हाँ एक कृष्णा है जो विपरीत स्थितियों में भी मंजिल पर फोकस है।एक दिन वो किला फतेह कर लेगी।गुणवंत ने वर्धा यूनिवर्सिटी ठान रखी थी। विजेश शायद फूल टाइम खेती के साथ पार्ट टाइम कॉलेज साध रहा था।उर्मिला जैसी कई लड़कियां जीवन में कुछ बनना चाहती होंगी मगर कमबख़्त गरीबी आड़े आती रही।इधर कोई गरबा करवा रहा है तो कोई बजरंग दल संभालता है।बाक़ी एबीवीपी और एनएसयूआई में हाथ बटा रहे हैं।एकाध ट्रेक्टर चलाता है बाकी दो-एक कमठाणे पर मजूर हैं।कुल जमा आधे से ज्यादा किसानी से बाहर नहीं आ पाए या गाँव ने उन्हें कहीं जाने नहीं दिया। 2017 के बरस की यह डेढ़ दर्जन बच्चों वाली कक्षा बारह थी। एकदम बहुरंगी।बाद में खुद को सुधारा क्योंकि मैं ही पागल था जो सभी में माड़साब बनने की एकरंगी इच्छा थोप रहा था।

7 अक्टूबर 2019
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बच्चों को दिशाभ्रमित करने में हम हमेशा आगे थे। वे संविधान सम्मत सोच और बन सके, ऐसी हमारी एक भी गतिविधि नहीं थीं। कक्षा में 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' पढ़ाते और असल क्रांति के वक़्त हम चड़ी-चुप हो जाते। हम शर्मिंदा थे। हुआ यूं कि वामपंथी अध्यापक ने वामपंथ को सराहा।दक्षिण के रुझान वाले ने दक्षिणपंथ।एक लिबरल था तो विद्यार्थियों को लिबरल बनाता रहा।प्रगतिशील टाइप भी एकाध रहा।यूं बच्चे सीखते रहे प्रगतिशीलता के मायने।जो अवसरवादी थे अपने जैसा रंग भर रहे थे बालकों में।एक भी गांधीवादी नहीं था, इस तरह बच्चे गांधी बनने से वंचित रहे।अम्बेडकरवाद के पाठ कौन पढ़ाता।कोई जानकार था ही नहीं।स्त्रीवाद की बातें बालिकाएं बमुश्किल जान सकीं, एक भी पुरुष स्त्रीवादी जो नहीं ठहरा।बच्चे वही बन और चुन रहे थे जो उन्हें सुझाया गया।भगत सिंह और सुभाष सहित विवेकानंद बच्चों में गहरे उतर जाए ऐसे प्रयास नदारद थे। विद्यार्थियों हमें माफ करना। मैं उस मानवतावादी की तलाश में था जो आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी/हज़ारी बाबू सरीखा आकाशधर्मा गुरु हो सके।सारे विचार उनके गुण-दोषों सहित खोलकर रख दे और बच्चों को अपने विवेक से विचारधारा चुनने की आज़ादी दे।काश ऐसा होता।

(बसेड़ा की डायरी,12 अक्टूबर 2019)
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बसेड़ा स्कूल तुम्हें याद करता है क्योंकि तुम्हारी कमी सिर्फ़ तुम्हीं पूर सकते हो।दीपक, अब तुम्हारी तरह का मंच संचालन यहां कोई नहीं करता। कारू की समाज और राजनीति को लेकर जो समझ बनी अब यहां दुर्लभ है।ममता के जाने के बाद अब जन-गण-मन के ठीक बाद 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' का नारा यहां कोई नहीं लगाता।उमा तुम्हारी जैसी शांत और सादगी से लबरेज़ विद्यार्थी मिलना लगभग मुश्किल है।पूजा की मानिंद भोली और नृत्य में प्रवीण दूजी नहीं रही।जब भी कोई अटक-अटक कर बोलता है सच्ची बोलूं, पवन तुम्हारी याद आती है।जिस किसी लड़के के माथे पर तिलक देखता हूँ वहां जीवन की तस्वीर आ टपकती है।पुष्कर का सुगठित बदन और हँसाने की कलाकारी मिस करता हूँ।प्रभु सरीखा शर्मिला और 'गोलमाल' उत्तर लिखने वाला अब तक नहीं मिला।रौनक उस दौर का सबसे उपेक्षित लड़का था मगर कक्षा की 'रौनक' उसी से थी।शब्दों को चबाकर बोलना तुम्हारी शारीरिक कमजोरी रही होगी मगर तुम गंभीर खेतिहर थे।मुझे तुम्हारी किसानी पर गर्व है।रौनक हाँ तुम्हारे जैसा एक दिन छोड़कर एक दिन स्कूल आने वाला आज तक पैदा नहीं हुआ।बबलू तुम कितने चुप्पे थे मगर तुम्हारी मुस्कान के जवाब में हमारे पास ऐसी मुहब्बत नहीं थी।कुलदीप, अब कम्प्यूटर लैब आ गई है मगर अफ़सोस तुम चले गए।स्पिक मैके केंद्रित दो यात्राओं के साथी तुम्हें स्कूल लाइफ से आज़ादी मुबारक मगर स्कूल तुम्हारे बगैर अधूरा है।संडे लाइब्रेरी के शुरुआती दिन और गर्मी की छुट्टियों में पौधों सहित स्कूल की देखभाल कुछ भी नहीं भुला नहीं जा सकता।फोटोग्राफी और फेसबुक लाइव की मेरी वोलंटियर टीम तुम्हें हिचकियाँ ज़रूर आती होगी क्योंकि बसेड़ा बुला रहा है।भूतपूर्व हो चुके अभूतपूर्व स्टूडेंट्स को भूल जाने वाले वक्त में मैं हिंदी का माड़साब तुम्हें पुकारना चाहता हूँ।जीवन में भले सफल मत होना प्लीज सार्थक होने की गुंजाइश रखना।

(बसेड़ा की डायरी,14 अक्टूबर 2019)
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अध्ययन-अध्यापन के बिजनस में सब दिन एक भाँत के नहीं रहते।जब भी निराशा के घेरे में आ पड़ता मैं किसी संजीदा दोस्त की शरण लेता हूँ।कभी पसंद के कवि के छंद ऊर्जा देते हैं कभी विनय-चारू के जनगीत।कभी पार्वती जी का बाउल गायन मुझे संभाल लेता है।देर रात में हमविचार विज्जू-जॉय-महेंद्र-सांवर के साथ शेड्यूल हुई श्लील/अश्लील के भेद को पाटती बातों के बीच के गंभीर और पर्याप्त वैचारिक डिस्कोर्स से मेरी जान में जान आती है।सुबह-सवेरे का क्लासिकल संगीत और कान में ठूँसे ईयरफोन मुझमें ऊर्जा भरते हैं।कभी-कभार विद्यार्थियों का अतिरिक्त प्रेम और मनुहार जीने की वज़ह गड़ देती।चित्तौड़ में हूँ तो सत्यनारायण जी व्यास और राजेश चौधरी जी ऐसे ठिकाने हैं जो मेरी संजीवनी है।इन दिनों रुक-रुक कर चलती हुई पीएचडी का शोध कार्य,एक पांडुलिपि के जल्दी पूरा करने का दबाव और मकान निर्माण के बोझ तले दबा हूँ यही समझ लो।हाल के हज़ारों अध्यापकों के ट्रांसफर के किस्सों में दर्जनभर कहानियों ने दिल खुश कर दिया कि स्टूडेंट्स विदाई के वक़्त जी भरकर रो रहे हैं।यह अध्यापन और स्कूलिंग की परंपरा में एक आशाजनक संकेत है।जब मैं कुछ नया नहीं कर पाता और मेरा रियाज़ मंदा पड़ जाता है तो मित्रों के फेसबुकिया अपडेट्स ऑक्सीजन की मानिंद बर्ताव करते हैं।कचोटिया का पढ़ाकू मास्टर हाल मुकाम अलसीसर अभिनव सरोवा,प्राइमरी स्कूल की बैंजी कविता नायर,अधिकारों की खातिर जंग लड़ती प्रतापगढ़ की ममता और मनोहरगढ़ प्रयोगशाला वाला मोहम्मद हुसैन डायर।जितने याद हैं उतने ही नाम भूल भी रहा हूँ।इन सभी की प्रतिबद्धता मुझे साहस देती है और मैं अपनी अल्पकालिक निराशा से उठ खड़ा होता हूँ।मेरे गिजुभाई,गांधी,भगत और अवतार सिंह ये ही हैं।मैं इन्हीं में कलाम और सर्वपल्ली देखता हूँ।मुश्किलों से लड़ते हुए बेहतर समाज के निर्माण में तल्लीन अध्यापक साथी ही मेरे गुरु हैं।हाँ कुछ किताबें हैं जिन्हें मुसीबत की बेला में उलटता पलटता हूँ तो रास्ता मिल ही जाता है।कृष्ण कुमार और जॉन हॉल्ट से कभी मिला नहीं मगर उनके लिखे का मुझ पर बड़ा असर है और इसी से मेरी रोजी-रोटी सलामत है।मेरी अंधेरी डगर में अगर तरह-तरह का उजाला है तो वो अज़ीम प्रेमजी वाले रमेश जी दादभाई का है,विद्या भवन उदयपुर वाले भाई पुष्पराज राणावत का है।अपने आसपास के कुछ लोगों अनिरुद्ध,ज्योति दीदी,पयोद भाई, मनीष रंजन जी,मेरे गाइड राजकुमार जी की जोड़ का औसत वाला आंकड़ा हूँ।शुक्रिया उनका कि इस अंधेरे वक़्त में बीते माह भीलवाड़ा में गूंज उठी उस गांधी केंद्रित सेमिनार का उजास सबसे ज्यादा है।कुछ सेमिनारें ही होती हैं जो भीतर तक असर कर पाती है। बाक़ी आनंद।हैप्पी बर्थ डे कलाम साहेब।आप हमेशा ज़िंदा हैं यहीं आसपास हैं।

(बसेड़ा की डायरी,15 अक्टूबर 2019)
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सिनेमा देखना,दिखाना और अध्यापन में उसके ज़रूरी इस्तेमाल का गणित और तहज़ीब मैंने साथी संजय जोशी,भाई हिमांशु पंड्या,मित्र शैलेन्द्र सिंह भाटी और अनुज महेंद्र नंदकिशोर से पाई।बीते तीस महीने में नहीं-नहीं करके भी बसेड़ा के स्टूडेंट्स को 3 दर्जन फ़िल्में दिखा और देख चुका हूँ।डॉक्यूमेंट्री,फीचर और विभिन्न यूट्यूब चैनलों के एपिसोड तो सैकड़ों हैं।ज़िन्दगी में 'प्रतिरोध का सिनेमा' आंदोलन से नहीं टकराता तो मेरी समझ अधूरी और कच्ची ही रह जाती।जुदा किस्म की फ़िल्में अक्सर दोस्त ही परोसते।मैं खुद नया कम ही ढूंढ पाता।कुछ तो आलसी ठहरा। यूट्यूब,नेटफ्लिक्स,प्राइम विडियो, हॉटस्टार के आईडी पासवर्ड का जुगाड़ महेंद्र नंदकिशोर से हो जाता था।बाक़ी इससे पहले मेरी एक गलत समझ यह बन चुकी थी कि ज्ञान खाली क़िताबों में समाया हुआ है।अब लगा कई पूरक माध्यम भी हैं जिनमें से मेरी अनुभूति में सबसे ऊपर सिनेमा उभर कर आया।
ओमीदयर नेटवर्क की भेंट में प्राप्त दो टीबी की हार्ड डिस्क का भी बड़ा योगदान है।थैले में सब रखता हूँ।पोर्टेबल स्पीकर,केबल,लेपटॉप,इंटरनेट डोंगल,हैडफोन और तो और एक्सटेंशन केबल। शुरू में अज़ीब अनुभूति होती अब आदत का हिस्सा है।इसी साल कक्षा 11 को बतौर कक्षध्यापक जिम्मेदारी निभाते हुए 'बिगाड़ने' की योजना में कई फ़िल्में शेड्यूल की।गोया निल बटा सन्नाटा, चालो वाही देस, जय भीम कॉमरेड, पैडमेन, सुपर 30, हिचकी, गांधी माई फादर, गांधी जैसे कुछ नाम हैं।सिलेबस में फ़िल्में शामिल नहीं थी।सिलेबस के लिए स्कूल ने किताबें और बाज़ार ने पासबुक उपहार दे दी। अब अध्यापक की बारी थी कि वो खुद में ऐसा तेज़ पैदा करे कि बच्चे स्कूल आने के लिए लालायित रहे। खैर फ़िल्म स्क्रीनिंग के बाद की चर्चा ने बच्चों के प्रति मेरी धारणाओं को तोड़ा।हालांकि बच्चे जिस डोमेन में जी रहे थे मैं उससे अलग डोमेन का प्राणी था।समानता यह थी कि हम सभी ग्रामीण थे।हमारा संघर्ष लगभग एक सा था।
इस बीच दिल्ली यूनिवर्सिटी ने सिनेमा पर पैनल चर्चा में अनुभव सुनाने बुलाया तो कॉन्फिडेंस आधे आसमान पर जा टिका।कुछ फ़िल्में रेडियो की भाषा में प्रसारण हेतु 'क्यू' कर रखी है जैसे उबंटू, आर्टिकल 15, थ्री इडियट, गरम हवा, पिसतुल्या, मसान, चॉक डस्टर और दो बीघा ज़मीन।संसाधनों की कमी पर इच्छाशक्ति हमेशा हावी थी।आईसीटी लैब के बूते अब प्रोजेक्टर आ गया बाक़ी आधी दर्जन फिल्में तो हमने लेपटॉप या दोस्तों से माँगतुंग कर लाए प्रोजेक्टर पर ही दिखाई।लैब को छोटे बच्चे 'टीवी वाळो कमरो' कहकर बुलाते हैं।अच्छा लगता है।बच्चों के लिए यह एकदम नई दुनिया से संवाद था।बिना गानों और बिना प्रेम त्रिकोण वाली फिल्में।फ़िल्में जिनमें विलेन चाकू छुर्री नहीं चलाता। न हीरो मरता है न प्रेमिका का बाप गुस्सा होता है।फ़िल्में देखने के अगले सात दिन तक पीछा नहीं छोड़ती।बच्चे फ़िल्मों के किरदारों में खुद को ढूंढते।अपनी मुश्किलों के हल फ़िल्मों से थाह लेते।इस अंतराल में सोचते,रोते और हँसी-ठठ्ठे के बीच का मर्म समझने में अपनी यथायोग्य शक्ति लगाते अनुभव हुए।इतना काफी है।

मुझे अब पक्का विश्वास हो गया कि जो हम सीधे सपाट नहीं कह पाए वह फ़िल्मों ने दिल में उतार दिया।जो क़िताबों में अधूरा छुटा हुआ रह गया वो सिनेमा केंद्रित चर्चा ने बराबर कर दिया।इस तरह चयनित फ़िल्में देख बच्चे मेरे लंबे और बोरिंग भाषणों से बच गए।नीरस और उबाऊ अध्यापन टेक्निक के ज़माने में इस कोशिश ने बच्चों के मानस में बहुत अरसे से सेट 'टिपिकल' अध्यापक की इमेज को थोड़ा बदला।एक तथ्य नया है लिख लीजिएगा कि बच्चों के चेहरे पर आई मुस्कान से ही माड़साब को ऑक्सीजन मिलती है न कि हरेभरे पेड़ों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया से।

(बसेड़ा की डायरी,16 अक्टूबर 2019)
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इन दिनों बसेड़ा वाले हिंदी के माड़साब के पास पखवाड़ेभर की झलकियां हैं।जानना चाहते हो? एक औचक निरीक्षण के बाद मिला कारण बताओ नोटिस है।सरकारी स्कूलों को लेकर प्रशासन द्वारा सोचने समझने की स्टाइल पर दिमाग में तीन दिन से चल रही ऊहापोह और दया है।इधर एक बड़ी बाल सभा की तैयारियां हैं जिनमें राम कैलाश यादव जैसे बिरहा गायक दिवंगत होकर भी फिर से अपने गीत के मार्फ़त ज़िंदा हुए हैं। उधर 'पीपली लाइव' नामक फ़िल्म के उस प्रसिद्ध गीत 'चोला माटी के राम' की रियाज़ है जिसमें ख्यात रंगकर्मी और गायिका नगीन तनवीर को दी गई सलामी है।बाल सभा में एक प्रिंसिपल इंचार्ज के अनौपचारिक होकर विद्यार्थियों के बीच ढोलक की थाप पर गाने और नाचने के पल हैं।साथी अध्यापक मथुरा लाल जी का बिंदास लोक गायन और साथ ही ठहाके और ठुमकों पर सदन के हुर्राटे हैं।साथी अध्यापिका बिंदु जी का लगातार सुधरता हुआ मंच संचालन है।
इसी सप्ताह में अध्यापकी के बरक्स लगभग अरुचिकर मगर ज़रूरी कार्यवाहक प्रिंसिपल का चार्ज होने से जारी कुछ कड़क आदेश और उनकी पालना है।कक्षा के उबाऊ अध्यापन के बाद ठीक बाहर आयोजित गतिविधियों के कारण बच्चों के खिलखिलाते चेहरे हैं।दिवाली की साफ-सफाई के चलते उदयपुर पुस्तक मेले में नहीं जा पाने का एक शोधार्थी का दुःख है मेरे पास।हाँ यादों की जेब में मुसीबत के वक़्त सलाह मशविरा देते दोस्त और साता पूछने वाले फोन कॉल्स भी हैं।एक प्रशासनिक बैठक में हिस्सेदारी करने और बड़े लोगों को चुपचाप सुनने की परंपरा में प्रश्न पूछने का साहस भी इसी पखवाड़े के पन्नों पर लिखा जाए।बोझिल होमवर्क की दुनिया में टेंशन से लथपथ बच्चों के माथे पर सेकंड टेस्ट की लकीरें साफ उगड़ रही है।अपने प्राचीन अर्थ को खोते हुए दो संडे हैं जिसमें 'संडे' जैसा अब कुछ बचा नहीं।दो अक्टूबर केंद्रित गांधी जी और 15 अक्टूबर केंद्रित कलाम साहब के किस्से और बच्चों के बीच उनके बारे में की गई बातें हैं।
मेरे रोजनामचे में कुछ और हिसाब है गोया पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति के लोग सदैव अपने मित्रों के घेरे में कुछ जानकार रखते हैं। उसी सूची से इस सप्ताह अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन राजसमंद वाले मोहम्मद उमर भाई से मुलाक़ात लिखी। चित्तौड़ में राजेश जी चौधरी और महेंद्र नंदकिशोर के साथ रात के पहले प्रहर के पूरे तीन घण्टे उमर भाई की किस्सागोई के नाम रहे।क्या गज़ब बोलते हैं उमर दादभाई जैसे कोई कारीगर दीवार चुनते वक़्त खण्डे जमाता हो।जैसे वे हर समय रेडियो के लिए उवाच रहे हों।देश-दुनिया के मुद्दों पर बतियाते हुए उमर भाई के लगातार पढ़ने और संतुलित सोच के साथ शेयर करने का अंदाज और हम तीनों पर उसके भारी असर की रात भी इसी पखवाड़े में आई।
फ़िल्म एक्टिविस्ट और अब प्रकाशक भाई संजय जोशी से सिनेमा सहित अब प्रकाशन के फील्ड में प्रतिबद्धता के साथ बने रहने की मुश्किलें और आने वाले चौतरफ़ा दबाव पर घण्टेभर का संवाद मुझे समृद्ध कर गया।चित्तौड़ और नाथद्वारा में स्पिक मैके की लौ लगाने वाले अब उदयपुरवासी कवि और निबंधकार सदाशिव श्रोत्रिय जी से बात करना एक सेमिनार के हासिल के बराबर है।बहुत बारीकी और गंभीरता से सोचने वाले ऐसे बिरले, मेरे नज़दीकी मित्रों में कम ही हैं।इसी शनिवार उनसे 30 मिनट की बातचीत ने मुझ अध्यापक को बेहतर अध्यापक बनने की तरफ़ ही बढ़ाया।कुल जमा ये पंद्रह दिन जितने त्रासद थे उतने ही प्रेरक भी।हिसाब बराबर।मित्रों की संगत ज़िंदाबाद।
(बसेड़ा की डायरी,21 अक्टूबर 2019)
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माफ़ करना विद्यार्थियों इस बार कक्षा ग्यारह का दिवाली होमवर्क ऐसा दिया जो 'संजीव' और 'एक्सीलेंट' नामक पासबुक में नहीं मिलेगा। एक अपने मन में चल रही कहानी लिखनी है,दो कविताएँ और किसी एक किसान का इंटरव्यू करना है।लगभग दसेक सवालों वाली बातचीत।अंतिम कार्य यह करना है कि अपने आत्मकथ्य के रूप में अपने मन की बात लिखनी है।आप जान गए होंगे कि यह कार्य ट्रेडिशनल होमवर्क से जुदा है कि नहीं।बच्चे के दिमाग में हलचल शुरू।बस यही चाहिए था।लगभग जंग लगी कल्पना शक्ति और सृजन की ताकत को हवा-पानी और प्रकाश देने का यह एक अदद जुगाड़ है।बच्चे टेंशन में हैं और माड़साब मस्त।
कक्षा बारह का बोर्ड परीक्षा वर्ष है उन्हें बहुत प्यार से हिदायत दी कि यह उनके 'जीवन की दिशा' तय करने वाला साल है इससे ज्यादा क्या कहता।''खूब पढ़ो,यह दिवाली आपके लिए नहीं है, आपकी 'दिवाली' मंजिल के उस पार आपका इंतज़ार कर रही है।काश बच्चे इस व्यंजना को समझ जाएं।दर्जनभर दिनों की छुट्टियों पर जाने से पहले सभी ने सभी को अंग्रेज़ी में 'हेप्पी दिवाली' कहा।अंग्रेज़ी को लेकर दिल में गहरे बैठी कमज़ोरी को भूलने के लिए ऐसे ही छोटे-छोटे वाक्य हम देहाती लोगों में कुछ जान फूंकते हैं।जैसे थेँक्यू।वाऊ।सेम टू यू।ग्रेट।बाई।हाई।मेवाड़ी में यूं कहा 'ज्यादा मोटा भड़ाका फोड़ो मती, किंका वाड़ा में वादी लागे जसो काम करो मती,काती मीनो चालरियो है जो थोड़ो बहुत खेत-कूड़ा पर काम में हंडे रिज्यो।बाई-जीजी के वास्ते घर में लिपाई-पुताई और ढोळाई में काम आज्यो''।
अपने चारों तरफ़ फैले हुए 'जंगल' के बावजूद मुझे स्कूली बच्चे और साथी कार्मिक हौसला देते हैं।कभी-कभार मन खुसरो की उन पंक्तियों से कठ्ठे गले मिल रोना चाहता है कि 'चल खुसरो घर आपणे,अब रैन भई चहूँ देस'।फिर सोचता हूँ कि बसेड़ा के लोकप्रिय तालाब के पार स्थित महुए के घने पेड़ों के निचे हिंदी वाले बच्चों को पढ़ाने की आस बाक़ी है।कुछ बच्चों को तालाब की पाल पर बिठाकर कोई मोजूं कहानी सुनाना चाहता हूँ।दिल कहता है कि स्पिक मैके की सैकड़ों गहरी अनुभूतियों के आलोक में विद्यार्थियों के साथ म्यूजिकल मेडिटेशन सहित देश-दुनिया की मेरी पसंद की लोक और शास्त्रीय रचनाएं सुनना और सुनाना चाहता हूँ।इसी साल में एक ढपली खरीदकर बजाना सीखना चाहता हूँ।कुछ भोजपुरी बिरहा,बंगाली बाउल गीत और बल्ली सिंह चीमा भाई-अदम गोंडवी-दुष्यंत कुमार-पाश छाप जनगीत पूरे दम से गाना-गवाना चाहता हूँ।
कितना कुछ बाक़ी है जो करना है।जितने विचार उतनी गतिविधियां।वक़्त कम पड़ रहा है।सिलेबस आँखें दिखाता है।हर तीन महीने में साहूकार के ब्याज वसूलते वक़्त की-सी शक्ल वाली परीक्षाएं छाती पर आ बैठती हैं।काम अंजाम पर नहीं पहुँचते और 40 मिनट वाला घण्टा लग जाता है, बड़ा बुरा लगता है।हाँ कक्षा के बजाय पेड़ की छांव या आईसीटी लैब में विडियो सामग्री के साथ बहुत सारी चर्चाएं अभी अधूरी पड़ी हैं।कुछ फ़िल्में भी हैं जो अधूरी छुटी हुई हैं।सीतामाता के अभयारण्य की एक यात्रा वाली ख़्वाहिश हलक में अटक रही है।देखो कब पूरती है।
उन्तालीस का युवा हूँ तो जितनाभर संभव है कक्षा ग्यारह और बारह के कुल पैंतीस बच्चों के साथ उन मुद्दों पर काम करने की तमन्ना है जो वैश्विक स्तर को समझने के लिए एकदम ज़रूरी है।बीते ढाई साल में बसेड़ा नहीं आ सके मित्रों को जल्दी ही बुलाना चाहता हूँ जैसे आदित्य उर्फ़ जॉय,भीलवाड़ा आकृति कला संस्थान के कैलाश पालिया जी और उनकी आर्ट टीम, विजय उर्फ़ गुल्लू, मोहम्मद उमर भाई,उदयपुर के चित्रकार डॉ. संदीप कुमार और दिलीप डामोर।जल्दी आ जाओ भाई। वक़्त बहुत तेज़ी से बदल रहा है।दोस्तो,सनद रहे तुम्हारे द्वारा बसेड़ा आने के लिए किए गए वादों पर कभी भी काई जम सकती है।नई प्रिंसिपल मैडम इंदिरा जी मित्तल ने जॉइन किया है।सहज और ऊर्जावान हैं।काम करना और सहज होगा ऐसी आस है।किसी भी शनिवार आ जाओ।'टेंशन फ्री सेटरडे' हो जाएगा।बाक़ी आनंद।
(बसेड़ा की डायरी,22 अक्टूबर 2019)
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