16 मई 2021
सुबह आदरणीय सदाशिव श्रोत्रिय जी से ख़बर मिली कि उदयपुरवासी हिंदी आलोचक नवल किशोर जी नहीं रहे। कारण वही कोरोना। मैंने उन्हें नहीं के बराबर पढ़ा। ऐसा अक्सर होता है कि जब भी कोई बड़ा रचनाकार गुजरता है मैं सोचता हूँ कि इन्हें कितना कम पढ़ा है मैंने। यह मेरी मूल कमजोरी है। रेणु दीदी ने नवल जी से लम्बी बातचीत की वह पढ़ सका बस। गद्य आलोचना में उनका मन रमता था। रेणु दीदी ने उन्हीं के सानिध्य में दिनकर पर शोध किया था। चित्तौड़ और उदयपुर के सेमीनारों में उन्हें सजीव रूप से कई बार सुना। उनकी साफ़गोई से बड़ा प्रेरित हुआ। कई बार आयोजक उन्हें बुला तो लेते मगर वे कब क्या बोल देंगे इसे लेकर संयोजक का जीव मुट्ठी में रहता था। इस तरह समाज ने एक प्रगतिशील लेखक खो दिया। वादे के मुताबिक़ दिन के लिए नियत पाँच लोगों में से किसी से बात नहीं कर पाया। असल में नए दिन का सूरज किस करवट बैठेगा हमारे हाथ की बात नहीं है। दोपहर के आलस में कुछ देर ‘मैला आँचल’ को कुछ पन्ने आगे बढ़ाया। शाम के वक़्त मंगलेश डबराल जी का प्रतिनिधि कविताओं का राजकमल सीरीज का संकलन चुना। आज डबराल जी की जयंती है। चुनिन्दा कविताएँ जिन पर पेंसिल से मार्किंग कर रखी थी। आज खूब दिल से याद करते हुए कवि को पढ़ा। शब्द-शब्द गहरे तक ले जा रहा रहा था। आज फिर यह विश्वास पक्का हुआ कि कविताएँ इंसान को निराशा से उबारने की ताकत रखती हैं। टीचर्स ट्रेनिंग और साथियों के बीच किए अब तक समस्त पाठ आज बेतरह याद आए।
कोरोना-काल में
हम अध्यापक अपने अध्यापकी से जुदा जिम्मेदारियों में इस कदर खो गए हैं कि अपने
विद्यार्थियों से खूब दूर हो गए। सच कबूलना कड़वा अनुभव है मगर अंत में वह तसल्ली
देता है। बीते पंद्रह अप्रैल बाद से पता नहीं सुनीता क्या पढ़ रही होगी? सोना की
प्री बीएड वाली तैयारी कैसी चल रही होगी? कोई ख़बर नहीं। जीवन के खेत में लगाई
ट्यूबवेल में पानी आया कि नहीं? महीनगर वाला लक्ष्मण बहुत याद आता है। कोरोना काल
में पता नहीं उसके सादगी सम्पन्न परिवार में सभी कुशल से हैं या नहीं? कुछ के
वाट्स एप स्टेट्स से एक तरफ़ा संवाद हो जाता है। खुशांकी ने दीदी की शादी में खूब
आनंद लिया। अलका के म्यूजिकल अपडेट्स और चंचल के पारिवारिक अपडेट्स से कुछ जानकारी
मिल जाती हैं। बच्चे घरों में बंद हैं। क्या पता वे भी हमारी ही तरह जीवन और
मृत्यु के बीच द्वंद्व में जी रहे होंगे। एक समय ममता का पूरा परिवार ही कोरोना से
ग्रसित हो गया। उससे एक बार ही बात कर पाया। माफी चाहता हूँ। सपना और द्रोपती जाने
किस दुनिया में खोई हुई होगी। कोई हमचार नहीं। अंकिता अक्सर बीमार रहती थी। जाने
आजकल कैसे होगी? अभय, अंकित और ऋतिक के स्टेट्स नहीं दिखते आजकल। शक्ति सिंह तो
एकदम गायब है। एक विष्णु भी तो है। पता नहीं उसका नेट रिचार्ज पूरा भी है या नहीं।
कोई सूचनाएं नहीं। गहरी खोह में खो गए हैं सारे। संवादहीनता का यह कैसा दौर है।
मुश्किल समय में गुरु-शिष्य की टोली बननी थी। योजनाएं बनाकर गाँव में कुछ अनूठा
करना था। सारे जनगीत शांत हो गए हैं। समानांतर सिनेमा के नाम पर अब तक देखी सारी
फ़िल्में बेमानी साबित हो रही है। लगभग सभी खेतिहर परिवारों से हैं तो घर से खेत के
बीच ही झूल रहे होंगे। केवल अंदाज़ के भरोसे ही वक़्त कट रहा है। शिष्यों आप जहां भी
हो अपनी तरफ से इस समाज में कुछ सार्थकता भेंट करना। अपने पढ़े-लिखे होने के साथ
बेहतर इंसान की भूमिका में कुछ कर सको तो खुशी होगी। आपस में बात करना उसी से
ऑक्सिजन मिलेंगी। संवाद का टूटना मनुष्यता के लिए अच्छा नहीं। ये सभी मेरे वे
बच्चे हैं जो बसेड़ा स्कूल की सबसे बड़ी कक्षा के हैं। अब वे स्कूल छोड़ देंगे। स्कूल
हमेशा उन्हीं का रहेगा। अच्छी सहभागिता के लिए स्कूल सभी का इंतज़ार करेगा।
अभी बहुत से काम
निबटाने हैं। मेरे ड्राइविंग लाइसेंस में ही अभी तो सन दो हज़ार तीस तक की वेलिडिटी
है। प्रवीण की पीएचडी अवार्ड करवानी हैं और उसकी अंतिम फीस भी वादे के मुताबिक़
उधारी चुकाते हुए मुझे भरनी है। जीवन विद्या वाले सोम जी के शिविर करने हैं। अपनों
के इंतज़ार में कई रविवार गुज़ारने हैं। संदीप मेघवाल के साथ सीतामाता के जंगलों में
जाना हैं। एचडीएफसी वालों को अभी अठारह बरस तक और लोन की किश्तें चुकानी हैं। हिमालय
की बर्फ देखनी बाकी है। शिक्षा, समाज और विद्यालय के बीच के सही मायने अभी जानने
हैं। मित्रों से गप मारने के रिकोर्ड तोड़ने हैं। अपनी माटी की ‘अध्यापक होने का
धर्म’ सीरीज को फिर से उजाले में लाना हैं। कितना-कितना ड्यू है। यह सूचना कोरोना
के कुनबे तक पहूंचे। अभी तो नए मकान में राजेश जी चौधरी, रमेश जी शर्मा और
पुष्पराज भैया के साथ वेज पुलाव बनाना हैं। प्रतिरोध का सिनेमा वाले संजय जोशी को
चित्तौड़ बुलाना शेष है। अभी तो मुझे चित्तौड़ दुर्ग को बहुत सारा प्यार करना हैं।
गंभीरी के किनारों को दुलारना बाकी है। दो साल हो गए किले के तालाब को लबालब नहीं
देखा। अपनों के बीच ठहाके मारकर हँसना कब से ड्यू ही चल रहा है। हम ऐसे हारने
वालों में से नहीं हैं।
अभी वेबीनारों की इस बाढ़ के उतर जाने पर गंभीर सेमीनार करने की इच्छाएं हैं। संस्कृत के प्रोफेसर कोरोना के लक्षण बता रहे हैं। अंगरेजी का व्याख्याता राजस्थानी में कोरोना का ईलाज सुझा रहा है। कंप्यूटर वाला समाजविज्ञान पर विचार साझा कर रहा है। मध्यकालीन संतों के साथ कोरोना काल को जोड़कर समीकरण गड़े जा रहे हैं। वेबिनारों के पोस्टरों पर गोरेगट्ट चेहरे चस्पा हैं। कोई खाली नहीं रहना चाहिए। पढ़ने वालों से कांस्टेबल का काम कराओ। कांस्टेबल से अस्पताल की नर्स का काम। प्रिंसिपल से बाबूगिरी। बाबू से चपरासी का काम। चपरासी से गैंगमैन। ताबड़तोड़ गूगल फॉर्म भरे जा रहे हैं। फीडबैक लिंक के लिए मारकाट मची हुई है। ई-सर्टिफिकेट से अमरत्व निचोड़ा जा रहा है। दृश्य आँखों में ब्लैक फंगस की-सी तरह बर्ताव करने लगे हैं। कुल जमा ऊब है। ऊब से अपने आपको बचा सकें तो बचाएँ। निजी पुस्तकालय से कोई किताब लेकर सूँघे। पसंद आए तो कुछ पढ़ भी लें। खैर मुझे इन सभी से निजात के लिए कुछ सूझा है कि छत पर गार्डन लगाना हैं। घर के बगल में सब्जी की बाड़ी लगानी हैं। काम की इतनी बड़ी लिस्ट हमारी बाट जो रही है तो कोरोना से बतियाना हमारे लिए फिलहाल संभव नहीं है। अंत में यही कहूंगा कि सच तो यही है कि इंसानी प्रेम के लिए स्पेस सिकुड़ रहा है मगर आपको मेरी कसम यह स्पेस बनाए रखिएगा नहीं तो दुनिया में रिश्तों की ताज़गी चली जाएँगी। सत्यानाशी कोरोना जीत जाएगा और हम मूँह ताकते रह जाएंगे।
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
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