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18 मई, 2021

बसेड़ा की डायरी : सुबह आलू-छोले की सब्जी थी और शाम को उड़द की दाल।


17 मई 2021


सभी तरफ सुस्ती है। स्कूल सुस्त, कक्षाएं सुस्त, अध्यापक सुस्त। पाठ्यक्रम की तमाम पुस्तकें एकदम चुप्पी साधे बैठी हैं। गर्मी की छुट्टियों का ऐसा मनहूस संस्करण पहले कभी नहीं महसूसा हमने। किताब-कॉपियों के बस्ते सत्रह अप्रैल से वहीं टंगे हुए हैं जहां बच्चों ने टांगे थे। स्कूल की यूनिफोर्म गुमनामी की सूची में जगह पा चुकी है। न घंटी बजती है अब न स्कूल के बाहर जीवन तेली के पानी पतासे बिकते हैं। अंगरेजी के तीनों टेंस बेरोजगार हो चुके हैं और वर्ब की सारी फॉर्म अपनी आभा खो चुकी हैं। विज्ञान की अल्फा, बीटा और गामा किरणें लापता हैं। संस्कृत में कारक, विभक्ति और उनके रूप फिलहाल शांत हैं। हिंदी में श्रुतिलेख और शब्द-शक्ति के अभ्यास लगभग बंद हो चुके हैं। सुलेख क्या होता है कोई नहीं जानना चाहता। परीक्षाओं को ग्रहण लग चुका है। परिणाम नाते जा चुके हैं। स्कूल के बरामदे बच्चों की शिकायतों का शून्य भोग रहे हैं। विद्यालय का बगीचा दिनोंदिन सूख रहा है। स्कूल परिसर की ट्यूबवेल बीते छह माह से नकारा पड़ी है। चार कमरों का चलता हुआ निर्माण-कार्य अब लटकताण में है। कोचिंग सेंटर का जीके मौन है। प्रतियोगी परीक्षाओं के सारे मास्टर-पीस अध्यापक आराम भोग रहे हैं। गणित की प्रश्नावली आठ पॉइंट तीन से आगे खिसकने का नाम नहीं ले रही है। सामाजिक अध्ययन में हमने आख़री बार राजव्यवस्था में केंद्र सरकार और राज्य सरकार के दायित्व पर चर्चा जहां रोकी थी वह वहाँ से एक पग भी आगे नहीं खिसकी। गज़ब का ठहराव आया है ज़िंदगी में। खाली साँस आना और जाना जीवन कैसे हो सकता है भला।

 जीवन में संकट इस कदर आया है कि विज्ञान से ज्यादा गाँव में अविज्ञान बस गया है। विश्वभर के वैज्ञानिक टीका विकसित करने में जान लगाए बैठे हैं। इधर हम बाल्टी में धुँआड़ा करके ही गाँव से कोरोना भगाने की तरकीब ईजाद कर चुके। यह फिर साबित हो रहा है कि युवाओं में असीम ताकत होती है और समाजसेवा का चस्का उन्हें कभी भी बरगला सकता है। भैंस के दूध की सारी ताकत के अनुपात में युवाओं का प्रदर्शन उनके सामूहिक जुलूस में साफ दिखता है। फिलहाल सरकार ने झुंड बनाने की मनाही कर रखी है। आप निर्दोष हैं। हमारी शिक्षा हमारे भीतर वह विवेक पैदा नहीं कर सकी कि हम अभिधा में लिखे नियम न समझ सके। ढोल बजना शुरू होते ही हम अपनी बुद्धि आलमारी में रखकर मोहल्ले के मजमे में आ जुड़ते हैं। जबकि दो गज दूरी का नारा सब तरफ चस्पा है। गोबर चोपड़ने से जल्ली और माखामोर का काटा दर्द कुछ देर में राहत दे सकता है मगर कोरोना न्यारी बीमारी है भाई। नाक में नीम्बू निचोड़ने वाली वाट्स-एप छाप सलाहों से बच सको तो बचना मेरी बहनों। कुछ पढ़े-लिखे और पैसों भरी जेब वाले चुपके-चुपके सीटी स्कैन करवाकर प्राइवेट अस्पताल से एडवांस ईलाज ले ही रहे हैं। बचे कौन आप? टीवी ही देखनी हो तो डॉक्टर्स के साथ पैनल चर्चा वाले आयोजन देखना। युवा मित्रों कुछ दिन पब्जी नहीं खेलोगे तो भी चलेगा मगर इम्युनिटी के बगैर मामला गड़बड़ हो जाएगा। बाकी सादड़ी वालों के टीके धरियावाद में लग ही रहे हैं और धोलापानी वालों के पीपलखूंट। टीके का स्लॉट पा जाना आई.पी.एल. जीतने के बरोबर है महाराज। एक काम और ज़रूरी है जो गांव में एलान की भाषा में कहना है कि "अड़भोपा मिनखां के कानड़ा में कान्यो-मान्यो कुर्र करनो है के आज तक कोरोना का टीका लगावा सूं कोई नी मर्यो अन टीका लागा तका लोग-लुगायां के कोरोनो अतरो माथे नी पड्यो है। नी-ज हमजे तो पचे सती माता और पुर्बज बावजी के भरोसे छोड़ दीज्यो सा।"

 वक़्त का सलूक ऐसा है कि हमें सिर्फ तारीखें याद रही हैं वार और तिथियाँ स्मृति से अब नदारद हैं। लॉक डाउन नहीं होता तो तारीखें भी भूल जाते भगवान्। चोक ऐसे बिगड़े कि अमावस-पूनम सब गसड़-फसड़। सारे देवरे बंद। सारे भोपाजी-हजुरिए बेरोजगार। रोज़ सवेरे से शाम तक कितने अपने देह छोड़ रहे हैं। हम सिर्फ शोक मनाने को विवश हैं। मनुष्य सहित नदियों के धीरज की परीक्षा है। अस्पतालों से लेकर शमशानों तक का इम्तिहान। उठावने, द्वादशा, घाटा, ग्यारहवां और गंगा माताजी का गंगोज याद रखने की हिम्मत अब नहीं रही। रस्में सिकुड़न के लिए मजबूर हैं। शोक में बैठने जाने और पीड़ित को छाती से लगाने की हज़ारों आशाएं धूमिल। जी भर रोना तक नसीब से छीन लिया है इस महामारी ने।  फेसबुक पर स्क्रोल करते वक़्त इतिहासकार प्रो. लाल बहादूर वर्मा की तस्वीरें देखी। मेरे लगभग सभी प्रिय साथियों ने उन्हें बड़े अदब और दिल से याद किया है। डिजर्व करते हैं वे। एक जगह लेखिका गीताश्री ने अपने गुरु रेवती रमण जी के असमय गुजरने पर आज आलेखनुमा स्मरण लिखा। उसी की एक पंक्ति छू गयी कि गुरुजी आपने हमें पढ़ाया कम, सीखाया ज्यादा। अफ़सोस हम अध्यापक अभी तक गुरु हो जाने की तरफ नहीं मुड़ पाए। आज पीएचडी गाइड डॉ. राजकुमार व्यास सर से हो रही बातचीत में उन्होंने कहा कि नुकसान का सही-सही अंदाजा बाढ़ का पानी उतरने के बाद लगाया जा सकता है। हमने देश के कितने विशेषज्ञ इस कोरोना नामक बाढ़ में खोये हैं। ओह। दिन में सदाशिव जी से बात हुई तो वे भी नवल किशोर जी के जाने के बाद उदयपुर शहर में बौद्धिक चर्चा के लिए खुद को अब एकदम असहाय अनुभव रहे थे। लगता है विलाप के तमाम गीत हमें ही गाने हैं।

 आज एक फेसबुक लाइव में राजस्थान के ख्यात और अनूठे कथाकार आलमशाह खान के बारे में पल्लव भैया और दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी को सुना। दोपहर से शाम तक खान साहेब की तीन कहानियाँ पढ़ी। राजस्थानी और हिंदी का अद्भुत मिश्रण। अग्रवाल जी ने सही कहा कि उनकी कथाओं के पात्र तलछट के लोग ही हैं। एकदम ज़मीन से जुड़ी कहानियाँ। लगभग अनछुए विषय को समेटती कहानियाँ। बाकी घर में इधर आनंद है। सुबह आलू-छोले की सब्जी थी और शाम को उड़द की दाल।

 शोधार्थी मित्र बलदेव महर्षि से बात करके ऊर्जा मिली क्योंकि वह आदमी जीवन को अपने अंट में रखकर अपने मन का रंगने की ताकत रखता है। शाम में भीलवाड़ा के डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर से कुशल पूछी। पता चला आठ दिन पहले उनके दादाजी अल्लाह को प्यारे हो गए। नब्बे के आसपास थे। डायर खुद जनाजे में नहीं जा सके। उधर इसी वक़्त उनके अब्बा कोरोना की गिरफ्त में आए। डायर ने उन्हें आसीन्द से भीलवाड़ा अपने पास बुला लिया। घर पर ही ईलाज सतत है। डायर से बात हो और राही मासूम रज़ा, मंटो, इस्मत ताई का ज़िक्र न हो यह असंभव है। पढ़ाकू अध्यापक है डायर। अध्यापकों में ऐसे लोग अब लुप्त प्राय: प्रजाति में माने जाते हैं। अरे हाँ याद आया सुबह अपने कार्मिकों में वरदी चंद जी नाई और पवन शर्मा जी से तबियत का हाल जाना जो बीते दिनों खासे परेशान थे। मुसीबत में एक फोन भी रेम्डीसियर से कम नहीं होता साहेब। बाकी सब्र रखिएगा। किसी ने भरोसा दिलाया है कि सब्र का फल मीठा होता है।



सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ में रेडियो अनाउंसर। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन। 'आपसदारी' नामक साझा संवाद मंच चित्तौड़गढ़ के संस्थापक सदस्य।'सन्डे लाइब्रेरी' नामक स्टार्ट अप की शुरुआत।'ओमीदयार' नामक अमेरिकी कम्पनी के इंटरनेशनल कोंफ्रेंस 'ON HAAT 2018' में बेंगलुरु में बतौर पेनालिस्ट हिस्सेदारी। सन 2018 से ही SIERT उदयपुर में State Resource Person के तौर पर सेवाएं ।

कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।

प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com

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