24 मई 2021
जीवन में बसेड़ा जैसी आमद होने से बड़ी बात यह हुई कि मैंने उम्र के सैंतीसवे साल में अपने विद्यार्थियों से भी सीखना शुरू किया। तीन बरस से तालीम जारी है। अध्यापक होने की ख्वाहिश में बीएड और बीएसटीसी में जो सीखा वह या तो गुमराह होने का अभ्यास था या फिर यथार्थ से दूर जाने की प्रैक्टिस। एक रेगुलर डिप्लोमा था दूजा पत्राचार के भरोसे वाली डिग्री। पत्राचार वाली की गहराई किसी से छीपी नहीं है। किताबों और पासबुकों की वो दुनिया यहाँ बसेड़ा के ज़मीनी संसार से उलट नज़र आई। रेखा मैडम और यमुना मैडम ने बीती सदी के आख़री दशक में हमसे खूब मेहनत करवाई मगर देहात में बच्चे और उनके लोक के निज को बसेड़ा आकर ही समझ पाया। ट्रेनिंग के लम्बे भाषण यहाँ की कक्षाओं से एकदम भिन्न लगे। शहरी स्कूलों में एक महीने की टीचिंग-प्रेक्टिस का दंभ यहाँ उड़न-छू हो गया। आज भी सतखंडा वाले हेमराज जी राव और भादसौड़ा वाले आमेटा जी सर बड़े याद आते हैं। क्रमश: हिंदी और संस्कृत के गुरुजी थे। भाषा से ज्यादा उनका इंसानी व्यवहार हम पर हावी रहा। ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ सीखने के लिए गाँधी जी से भी पहले यही दो गुरुवर स्मृति में आते हैं। पत्राचार वाली उपाधियों में तो पैसे देकर अनुजों से लिखवाए गए असाइंमेंट ही गुरु हैं। कुंजियाँ ही आधार और परीक्षा ही मंझिल। परिणाम पूर्व-निर्धारित की तरह आनंददायक।
अध्यापन के लिए
की गयी डिग्री और डिप्लोमा में सिलेबस से ज्यादा गुरुवर के व्यक्तित्व का असर रहता
है। राधेश्याम जी सोमानी का अनुशासन नींद में भी उचका देता था। याद रहे कि सभी
शिक्षक गौर करने लायक नहीं होते। कुछ आपसे दाल-बाटी और चूरमे के लाडू बनवाने के
लिए भी जन्मे हुए होंगे। शिष्य सभी की पोल-पट्टी जानते हैं। गुरुजनों की बही चेलों
के खाँक नीचे दबी रहती है। पढ़ाने में कमज़ोर माड़साब को सदैव डर लगा रहता है तो केवल
अपनी कक्षा के बालकों से। आज वे मास्टर भी याद आ रहे हैं जो घर बुलाकर परीक्षा की
कोपियाँ चेक करवाते थे। कुछ गुरु एकदम परिवारजन सरीखा दुलार देते थे। मीठूलाल जी
उनमें से एक हैं। कुछ तो बेचारे बड़े निर्दोष थे। गेले आते और गेले जाते। कामचलाऊ
और समय-बीताऊ। कुछ शिष्यों से खाटी-छाछ मंगवाकर ही संतुष्ट रह लेते। वैसे उन्नीस सौ
सतानवे-अठानवे में तालीम पक्की पाई इसलिए आज संकट में भी पाँव नहीं डोलते। कुछ
मित्रों का दोस्ताना था तो खूब जमकर प्रशिक्षण पाया। बीस साल पहले किसी डाइट
संस्थान से ट्रेनिंग का सही-सही आभास करना कोई बीस साल पहले के आदमी के ही बस का
है।
बसेड़ा में जाना
कि आजकल के शिष्य मिट्टी के ढेले नहीं होते हैं। उनके पास खेतकुड़े और बाड़े में
मात-पिता के हाथ बटाने के अद्भुत अनुभव होते हैं। दीपक ईंट बनाना जानता है और
गुणवंत अफीम की लूणी-चीरनी। ममता लहसुन चोपने से लेकर ढोर-ढंगर को बेहिचक संभाल
लेती। पिता का कंधा है अंकित। जीवन अकेले अपने दम संतरे का बगीचा साध लेता है। रितिक
ट्रैक्टर के बूते हंकाई-जुताई से लेकर रात वाली बिजली में ठंडी रातों की पाणत, सब
निबटाता है। अनिता-टीना को जब भी फोन किया घर-भर के लिए भोजन बनाती मिली या
परिवारों के नन्हों को गोदी खिलाती। बच्चों के चेहरे सपाट नहीं होते जनाब। उनके संघर्ष
की बारीक लकीरों वाली हथेलियों में हुनर बसता है। कई बार लगा जो मैं पढ़ाता हूँ या
पढ़ाने की जुस्तजू में करता हूँ वह उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से बिलकुल मेल नहीं
खाता। बसेड़ा ने मुझे राह दिखाई। कबीर और मीरा पढ़ाते हुए अब उदाहरण उनके ही लोक से
देने लगा। तब जाकर मामला जमा। उसी परिवेश से चीज़ों को उठाकर विश्लेषण करने लगा। जानने
की इच्छा गति पकड़ गयी।
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