बसेड़ा की डायरी, 25 मई 2021
भाषा के असर से जीवन की गाड़ी बेरोक चलती है। भाषा में मदहोशी अच्छी नहीं। यह अलग हुनर है अंग-बंग-चोक-चंग नहीं। शब्दों की थोड़ी सी बेवफ़ाई पाताल-तोड़ कुए में धकेलते देर नहीं करती। अकसर आप जैसा बोलते हैं वैसा का वैसा सामने वाला सुन लेता है। माहौल का तापमान वाक्य की बनावट पर निर्भर करता है। बोल के ताप से कुर्सियाँ मिल जातीं और बड़बोलेपन से नाव हिचकोले खाने लगती। ज़बान सब उगलती है। ज़हर भी और अमृत भी। चुनाव अपना-अपना होता है। भाषा अंगरखी की तरह आवरण है। सभा में माथे की पाग है और गोष्ठी में रंग जमाने का अंतिम औज़ार भी। बहुभाषी होना रंगरेज़ होना है। गद्य में मनचाहा गूँथ पाना बोलियों के बल पर ही संभव होता है। सदियों तक इसी से पहचानी जा सकी कवियों की तमीज़। लेखकों का दर्ज़ा भाषा ने ही तय किया अब तक। हरेक के पास रहती है न्यूनतम दो भाषाओं की तमीज़। एक माँ अपने पीहर से लाती है और दूजी पिताजी का गाँव हमें उपहार देता है। वैसे घर-जमाई पुरुषों के लिए ससुराल से तीसरी भाषा भी सीखने की गुंजाइश रहती है। कभी-कभार परदेश में पढ़ाई और दूजे देश की चाकरी भी भाषाएँ जनती है। जितने इलाक़े उतनी ज़बानें। हिंदी के घर में ही अठारह बोलियों का सकुशल बसर हो रहा है। कभी-कभार की धक्का-मुक्की अलग बात है।
पढ़ते-लिखते और रचते हुए लगा भाषा रोज़ बनती-बिगड़ती है। यह मनुष्य की लाज बनाती-बिगाड़ती है। आपसदारी की बातों में कभी अवगुण छिपा लेती और कभी अभिनय में सहारा देती है भाषा। प्रेम की डोर भाषाई गठबंधन से ताकत पाती है। माड़साब की रोजीरोटी भाषा पर ही टिकी हुई है। गिरस्ती धर्म की धुरी यही है। बोलने के सारे बिजनस का आधार भाषा है। एक लफ्ज़ इधर का उधर हुआ कि सौदा अगले पायदान पर सरक जाता है। बड़ी अनूठी दुनिया है भाषा की। सुनार की भाषा खेतिहर-किसान से अलग है। सिन्धी व्यापारी की भाषा गाड़िया लौहार से अलग सोहबत वाली। माँ-बापू की सुगबुगाहट आज के छोकरे के लिए समझना नामुमकिन है। वो क्या कहते हैं भाषाएँ भी जेनेरेशन-गेप की मात खाई हुई हैं।
पहली कक्षा की हिंदी पुस्तक में आम बाँटती बालिका वाली एक कविता ने इन दिनों अपनी भाषा को लेकर बड़ी बहस छेड़ रखी है। उसी चर्चित मुद्दे पर विमर्शपरक कहने इतनी समझ तो मेरी नहीं है। गाँव में जाना कि डोकरों की बातें अलग किस्म की होती हैं और उम्रदराज़ औरतों की अलग। बीड़ी-चिलम वाले जो शब्द उपयोग करते हैं अख़बार पढ़ने के लिए मजमा लगाने वाले नहीं करते। नरेगा के मेहनतकश भिन्न किस्म से बात रखते हैं। गाँव में डेयरी पर दूध देने आने वालों का जमघट किसी और ही भाषा में बातों की माला पिरोता है। सासुओं का समाजशास्त्र अलग दिशा में जाता है और बहुओं की शब्दावली अलग रंग दिखाती हैं। हाल के सालों में सोलह पार कर चुकी बालिकाएँ न्यारी भाषा में चहकती हैं और अभी-अभी मतदान के लायक हुए नौज़वान की जिव्हा कुछ् अलग ही उगलती है। अफीम का धंधा करने वालों की भाषा तो फिर एकदम ही समझ से बाहर है अपने।
वातावरण में बड़ी गंभीरता आ पसरी है गोया जिस शब्द को पिताजी बोलकर देहरी पार करते हैं उधर आँगन में आलस खाता बेटा उसके अनर्थ पर बुदबुदाना शुरू हो जाता है। एकांत की भाषा अलग है और समूह की अलग। कभी यह चेहरे के सामने लीपापोती सी है और कभी पीठ के पीछे नस्तरनुमा मारक। एक वाक्य पर भी भाभियों की क्रिया ननदों की प्रतिक्रिया से मेल नहीं खाती है। देवर-भाभी का संवाद एक विचित्र भाषा गड़ता है और देवरानी-जेठानी के डायलॉग नई किस्म की ध्वनियाँ पैदा करते हैं। रिश्तों में संवेदनाओं ताना-बाना इस कदर बुनावट लिए है कि घर में बेटियाँ अगला वाक्य कौनसा उगलने वाली हैं दस सैकंड पहले ही माँ जान जाती है। साहेब के माथे की लकीरों से ही ऑफिस के बाबू दिनभर में जारी होने वाले निर्देश भाँप जाते हैं। भाषा अपने बर्ताव के पहियों पर सवार होती है।
हमारे मेवाड़ में यहाँ माँ को बाई कहते हैं, बहन को जीजी और पिताजी की बहन को भुवाजी। पिताजी को कई नामों से पुकारते हैं भाई-जी, बापू या दादा। ज़ाहिर है मालवा में अलग बोलते होंगे। वागड़, हाड़ौती, शेखावाटी, मारवाड़ी में शब्दों को वापरने के सभी के अपने-अपने ढंग हैं। दुनिया की किसी भी भाषा में लिखी एक अच्छी कविता जब प्रतियोगी के किराए वाले कमरे में पंद्रह साल चिपकी रहती है तो वह छोरा-छोरी कलेक्टर बन जाता है। यह भाषा का कमाल है। भाषा में लिपटा एक अदद शे’र आत्महत्या करने वाले को ज़िंदा रहने का पुनर्विचार भेंट कर सकता है।
भाषा का क्या है मित्र-मंडली जुटती है तो दसेक मिनट बाद ही रंग जमने लग जाता। दो मिनट भी नहीं गुजरते कि दे-ठहाका। परसों रात प्रवीण-नितिन से गपबाजी हुई। प्रवीण कॉलेज में हिंदी पढ़ाता है और इन दिनों गर्मियों की छुट्टियां भोग रहा है। पीएचडी लिख रहा है अर्थात नीरस काम को करने का सामर्थ्य रखता है। ऐसे में दिनभर की थकान अकसर एक अच्छी शाम माँगती है। हमारी तिकड़ी ने कई साल ज़िंदगी को अपने मन का जिया है। हम तीनों जितना हिंदी में सहज थे उससे कई गुना मेवाड़ी में। मेरे अलावा दोनों अच्छे गायक हैं। प्रवीण के अलावा हम दोनों तकनिकी रूप से आगे होने के भ्रम में हैं। नितिन के अलावा हम दोनों उम्र में पाँच साल बड़े हैं और शादीशुदा होने का ज्यादा अनुभव रखते हैं। नितिन पुणे में वोडाफोन में है मतलब नितिन के लावा हम दोनों सरकारी मुलाज़िम हैं। नितिन के लिए ‘वर्क फ्रॉम होम’ जिंदाबाद। पहले-पहल तीनों ने अपनी नौकरियों का वर्तमान साझा किया। फिर परिवार को थामे रखने के तजुर्बे सुनाए। नितिन बाबू बड़ा सुरीला लड़का है। तीनों ने एक-एक करके गीत-ग़ज़ल सुनाई। इस बीच खाँसी-खेंखार और नाक सुड़कने की आवाज़ें भी आती-जाती रहीं। कोरोना-काल जो ठहरा। मित्रों में बातों के लिए रातभर भी कम पड़ जाती है। तीनों पुरुष थे तो ज़ाहिर है स्त्रियों का जिक्र हुआ। बातों में बंधन नहीं था। खुलेपन को पूरे में भोग पा रहे थे।
साल दो हज़ार सात की गर्मियों में जम्मू गए थे हम। परसों प्रवीण ने अपनी डायरी से चौदह साल पुराने अंश पढ़े। रमेश जी वाधवानी सर का अंदाज़े बयाँ, रमेश भाई की मस्तियाँ, सत्तू जी की आदतें, अंशिता, रेशल, दुष्यंत सहित अखिलेश औदिच्य की किस्सागोई। सब सिनेमा की रील की तरह याद आ गए। बीते में लौटना की वह सुखद यात्रा थी। दे-लम्बी खाइयां लांग रहे थे। नदी निहारते हुए पहाड़ नाप रहे थे। आसमान को बेसन चक्की की थाली की तरह सलीके से काटकर आपस में बराबर पाँती कर रहे थे। और तो और इतने खुश थे कि रात के एक ही पहर में लाखों पौधों की बुवाई हेतु हामी भर ली हो जैसे। बाँध का पानी नहरों में खोल मुफ़्त वितरित कर रहे थे मानो। कामायनी में मनु अकेला बचा था और उस रात हम तीनों बस। यही कथा थी उस रात के मेल-मिलाप की।
यह तीन हमविचार के मिलने का असर था। बिछुड़ने के भी अपने प्रभाव होते हैं। हुए भी। बीते डेढ़ दशक में हमारी भाषा ने कई मौसम देखे हैं। हम अपने कच्चेपन के ककहरे से पक्केपन के निबंधों तक पहुंचे हैं। यात्रा रोचक साबित हुई। अभी भाषा में वैसी तमीज़ प्राप्त करना शेष है। आशा है एक दिन पिता का कहा औलाद सौ टका समझ जाएगी। बेटियाँ उतना ज़रूर समझ जाएँगी जो माताओं का दिल कहेगा। पत्नियों और पतियों में भाषा को लेकर कोई वाद बाकी नहीं रहेगा। शब्दों और वाक्यों के पाठ तो भले हों मगर अतिपाठ नहीं होंगे। संवाद सहज हो जाएँगे। घरभर के लोगों की बातों के बाद आराम करते वक़्त देर रात भाषा अपने होने पर खूब इठलाएंगी।
डॉ. माणिक
manik@spicmacay.com
सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ में रेडियो अनाउंसर। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन। 'आपसदारी' नामक साझा संवाद मंच चित्तौड़गढ़ के संस्थापक सदस्य।'सन्डे लाइब्रेरी' नामक स्टार्ट अप की शुरुआत।'ओमीदयार' नामक अमेरिकी कम्पनी के इंटरनेशनल कोंफ्रेंस 'ON HAAT 2018' में बेंगलुरु में बतौर पेनालिस्ट हिस्सेदारी। सन 2018 से ही SIERT उदयपुर में State Resource Person के तौर पर सेवाएं ।
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
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