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18 फ़रवरी, 2010

अधपका जीवन


अधपका जीवन
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आधी उम्र गुज़र गयी तो,
लगा अधपका जीवन यूं,
कभी पहाड सा तो कभी,
अपने खेत के सामने वाले,
प्राईमरी स्कूल सा,
उबड खाबड भी लगा,
तो कभी रपटीले रास्तों सा,
लगा कभी मुझे वो,
दो के पहाडे सा सरल,
तो कभी बुज़ुर्गों की बातों सा,
पुराना और बेकार भी,
जानता हुं उम्र कच्ची है अभी,
जीवन पर कविता लिखने को,
भूल जाने का डर भी तो है,
याद कम ही रहता है आजकल,
मिलावटी खान-पान की औलाद जो हूं,
पास-पडौस के शादी-ब्याह,
मुंडन-नांगल में जाता रहा,
बनावटी हंसी,सूट,
उपर से अदाकारी की आदत,
दिखावटी लगा कभी ये जीवन,
लगा कभी मुठ्ठी से खिसकती रेत भी,
छत पर कपडे सुखाती,
पडौस की लडकी से लेकर,
शामिल है इसी जीवन में
रात के सन्नाटे में खांसती मां भी,
छः से आठ जेबों वाली पेंट पहनता हूं,
हिसाब की डायरी,दो-चार सीमें,
मिस कोल वाले बेलेंस के मोबाईल,
शोभा बडाते हैं उनकी,
और रखता हूं,जेब में वार्ड पंच से,
मन्त्रीजी के नाम पते तक भी,                                
आदत में मगर शुमार है लेकिन अब,
खुद चुने नेता को हाथा-जोडी और
अफ़सर को माई-बाप मानना,
आयोजनों में जाता हूं महज़,नाम के लिये,
समारोह या उत्सव से ज्यादा अच्छी लगती है,
उसकी अखबार में छपी खबर की,
अपने नाम वाली लाईन,
बदल गया हूं कितना,
बेनाप,बेमतलब के फ़ेलावडे सा,
दादाजी गोत्र देख कर शादी करते हैं,
आज भी घर में,
मगर मैं जाति भी,
न लिखता,न बताता,
समझ अभी बस ये पाया हूं
अधपके जीवन का अधपका बदलाव
पूरा पकना बाकी है,
जीवन अपना बाकी है.................

 
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