चित्र-साभार |
औरत
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मांगती न बोलती
जागती दिन-रात है
रोकती न चिड़ती
सादगी की जात है
नोचती न पूछती
पर सोचती हर बात है
सिंचती वो रोपती
जिन्दगी के बाग़ को
जोड़ती वो मोड़ती
टूटती हर बात को
लिपती और ढ़ोरती
कहती हर दीवार है
अलिखे को बांचती वो
लिखे का मूल सार है
बांटती और जापती
खुशी के हर राग को
ढूँढती और ढांकती
पीड़ के विलाप को
नाचती वो कूदती
अवसरों पर बोलती
चुप्पियों को चुनती
वो मांगती न बोलती
मिले हुए को भोगती
जागती दिन-रात है