लोग रहते है,मिलते है
खाते है,कमाते हैं
घरों में भरे हैं बूढ़े,ज़वान औए बच्चे
चलती है ज्य़ादा इधर भी युवाओं की ही
बेकाम के लगते है
बूढ़े लोग और किला सभी को
कुण्ड बावड़ियों में नहाते हैं
मनाते हैं हर त्यौंहार
मौत-मरण,मुंडन और ब्याह
होता आया सबकुछ यथासमय
नहीं हुआ तो किले का जीर्णोंद्धार
और बातें बुजुर्गों की हुई अनसुनी कई बार
आदमी रोज चढ़ता है किला
उतरता है रोज़
जाने को कारखानों,मीलों में
चढ़ने में चढ़ाव दिखता है
उतरने में ढ़लान दिखता है
मगर दिखती नहीं
किले की दीवार
जो हर मौड़ पर हाँफती है आज़कल
बुढ़ाते पत्थर रूक जाते हैं कहते हुए
शायद वो जल्दी में होगा
कह लेंगे कभी भी
आदमी भले घर का लगता है
तुम क्या जानों उस आदम को
राह नफे की जो नापे
रास्ते के मंदिर का पुजारी कौन है
उसे पता नहीं
पूछ मत लेना उसे
डाल देगा गफलत में तुमको भी
कहाँ पता उसे कि कब
पलट गई पूरी तस्वीर
सात में से चार चटक गए दरवाज़े
बनवीर की दीवार अब कम ऊंची है
यहाँ का आदमी सोता है
जागता है उठने के लिए
नहीं मालुम उसे आज़कल
कुरेद रहे हैं लोग शिलापट्ट बेवज़ह
कूदते है बन्दर जौहर स्थल में
हांग रहे हैं खंडहरों में लोग जानबूझ
घोड़ों को छोड़ कुत्ते पाल रहे हैं
कुछ कम गहरी पर मनमोहक
झीलों में अटा पड़ा है कचरा
सब बस्ती की माया है
रास्ते संकड़े हो गए हैं
किले में जाती गलियाँ में
निकल आए हैं चौंतरे आगे तक
देखी है और भी बस्तियां मैंने
तुमने भी देखी होगी कुछ तो
हर शहर में मिल जाएगी
ऐसी बस्ती,ऐसे लोग
किले ना ऐसे फिर मिलेंगे
शहर ना ऐसे फिर रहेंगे
(ये कविता चित्तौड़ दुर्ग के रतन सिंह महल में मेरे भ्रमण के दौरान उपजे विचारों पर आधारित है )
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